महाराज शिवी
महाराज शिवि अपनी शरणगत रक्षा के लिये प्रसिद्ध थे। एक बार देवराज इन्द्र तथा अगिनदेव ने उनकी परीक्षा लेने के लिये कबूतर और बाज का रूप धरण किया। महाराज शिवि अपने प्रांगण में बैठे थे। सहसा एक कबूतर काँपते हुए उनकी गोद में आकर गिरा और छिपने का उपक्रम करने लगा। महाराज शिवि को आशंका हुई कि अवश्य ही यह कबूतर भयाक्रांत है ओर शरण पाने के लिये ही उनकी गोद में छिपने का प्रयास कर रहा है।
महाराज शिवि की आशंका सत्य हुई। कुछ ही क्षणें में एक बाज भी आकर कबूतर के ऊपर उसका भक्षण करने की इच्छा से मंडराने लगा।
शिवि ने बाज से कहा- “अब यह कबूतर मेरी शरण में आ गया है। अतः इसकी रक्षा मेरा धर्म है। तुम चुपचाप यहाँ से चले जाओ।“
शिवि का संकेत समझाकर बाज ने मानवी भाषा में कहा- “महाराज, कबूतर को प्रकृति ने मेरा आहार बनाया है। किसी का आहार छीन लेना धर्म नहीं है। मैं बहुत भूखा हूँ। यदि मेरे आहार रूपी कबूतर को आप मुझे नहीं देंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगाा। इससे आप हत्या के भागी होंगे। क्या तब यह अधर्म नहीं होगा ?“
बाज का कथन राजा को ठीक ही लगा । अतः उन्होंने बाज से कहा, “भाई तुम्हारा कहना भी ठीक ही है पर मरा भी धर्म शरणागत की रक्षा करना है। अतः मैं शरणागत हुए इस कबूतर का त्याग कदापि नहीं करूँगा। तुम्हारा पेट तो किसी भी पशु के माँस से भर जायेगा।“
पर बाज भी अपनी बात पर अड़ा रहा। उधर राजा शिवि कबूतर को बाज को न देने के लिये दृढ प्रतिज्ञत थे। तब महाराज शिवि ने एक शर्त रखते हुए बाज से कहा- “अच्छा यदि मैं तुम्हें एक कबूतर के तौल के बराबर अपना माँस तुम्हारी भूख मिटाने के लिये दे दूँ तो क्या तुम मान जाओगे?
शिवि की इस शर्त को बाज ने स्वकार कर लिया। तत्काल महाराज शिवि ने तराजू लाने की आज्ञा दी । तराजू लाया गया।
तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बिठलाया गया। अब महाराज शिविर अपने दाएँ हाथ से अपना बाँया अंग काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। बड़ा लोमहर्षक दृश्य था। पर कबूतर वाला पलड़ा भारी ही रहा। महाराज शिवि ने धीरे-धीरे अपने सभी ही रहा बत महाराज शिवि स्वयं जाकर पलड़े पर बैठ गये।
यह महाराज शिवि की शरणागत की रक्षा की परीक्षा का चरम क्षण था। एक नन्हें प्राणी की रक्षा के लिये उन्होने अपना सम्पर्ण शरीर ओर अस्तित्व ही दाँव में लगा दिया था।
देवराज इन्द्र ओर अगिन देव महाराज शिवि के इस दान ओर तयाग को देखकर आश्चर्यचकित थे। अतः ते दोनों अपने असली रूप में प्रकट हो गये।
देवराज इन्द्र ने कहा-“महाराज शिवि आप धन्य हैं। आप हमारी परीक्षा में खरे उतरे हैं। शरणागत की रक्षा के लिये आप इस संसार में अनन्त काल तक जाने जायेंगे।
देवराज इन्द्र की कृपा से महाराज शिवि के कटे हुए अंग यथावत अपने-अपने स्थान पर लग गए। उनका शरीर पूर्व की तरह स्वस्थ एवं निरोग हो गया।
सब जीवों के प्रति दयाभाव तथा शरणागत की रक्षा करना हिन्दू धर्म की अहम विशेषता है।
कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता है
एक नगर में एक मशहूर चित्रकार रहता था ।
चित्रकार ने एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनाई
और उसे नगर के चौराहे मे लगा दिया और
नीचे लिख दिया कि जिस किसी को ,
जहाँ भी इस में कमी नजर आये
वह वहाँ निशान लगा दे ।
जब उसने शाम को तस्वीर देखी
उसकी पूरी तस्वीर पर निशानों से ख़राब हो चुकी थी ।
यह देख वह बहुत दुखी हुआ ।
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे
वह दुःखी बैठा हुआ था ।
तभी उसका एक मित्र वहाँ से गुजरा
उसने उस के दुःखी होने का कारण पूछा तो उसने उसे पूरी घटना बताई ।
उसने कहा एक काम करो
कल दूसरी तस्वीर बनाना और
उस मे लिखना कि
जिस किसी को इस तस्वीर मे जहाँ कहीं भी कोई कमी नजर आये
उसे सही कर दे ।
उसने अगले दिन यही किया ।
शाम को जब उसने अपनी तस्वीर देखी
तो उसने देखा की तस्वीर पर किसी ने कुछ नहीं किया ।
वह संसार की रीति समझ गया ।
"कमी निकालना , निंदा करना , बुराई करना आसान है
लेकिन उन कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता है।
जैसी करनी वैसी भरनी - कर्म भोग ..!!!
एक गाँव मे एक किसान रहता था। उसके परिवार मे उसकी पत्नी और एक लड़का था। कुछ सालो के बाद पत्नी मृत्यु हो गई। उस समय लड़के की उम्र दस साल थी। किसान ने दूसरी शादी कर ली। उस दूसरी पत्नी से भी किसान को एक पुत्र प्राप्त हुआ। किसान की दुसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई।
किसान का बड़ा बेटा, जो पहली पत्नी से प्राप्त हुआ था, जब शादी के योग्य हुआ, तब किसान ने बड़े बेटे की शादी कर दी। फिर किसान की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई।
किसान का छोटा बेटा, जो दुसरी पत्नी से प्राप्त हुआ था और पहली पत्नी से प्राप्त बड़ा बेटा दोनो साथ साथ रहते थे। कुछ टाईम बाद किसान के छोटे लड़के की तबयीत खराब रहने लगी। बड़े भाई ने कुछ आस पास के वैद्य से ईलाज करवाया पर कोई राहत ना मिली। छोटे भाई की दिनभर तबीयत बिगड़ी जा रही थी और बहुत खर्च भी हो रहा था।
एक दिन बड़े भाई ने अपनी पत्नी से सलाह की यदि ये छोटा भाई मर जाऐ तो हमे इसके ईलाज के लिऐ पैसा खर्च ना करना पड़ेगा।
तब उसकी पत्नी ने कहाँ की क्यो न किसी वैद्य से बात करके इसे जहर दे दिया जाऐ। किसी को पता भी ना चलेगा। कोई रिश्तेदारी मे भी शक ना करेगा कि बीमार था बीमारी से मृत्यु हो गई।
बड़े भाई ने ऐसे ही किया एक वैद्य से बात करी कि आप अपनी फीस बातओ, ऐसा करना मेरे छोटे भाई को जहर देना है।
वैद्य ने बात मान ली और लड़के को जहर दे दिया और लड़के की मृत्यु हो गई। उसके भाई भाभी ने खुशी मनाई कि रास्ते का काँटा निकल गया। अब सारी सम्पति अपनी हो गई। उसका अंतिम संस्कार कर दिया। कुछ महीनो पश्चात उस किसान के बड़े लड़के की पत्नी को लड़का हुआ। उन पति पत्नी ने खुब खुशी मनाई। बड़े ही लाड प्यार से लड़के की परवरिश की। समय के साथ लड़का जवान हो गया। उन्होने अपने लड़के की शादी कर दी।
शादी के कुछ समय बाद अचानक लड़का बीमार रहने लगा। माँ बाप ने उसके ईलाज के लिऐ बहुत वैद्यों से ईलाज करवाया। जिसने जितना पैसा माँगा दिया।सब दिया की लड़का ठीक हो जाऐ। अपने लड़के के ईलाज मे अपनी आधी सम्पति तक बेच दी पर लड़का बिमारी के कारण मरने की कागार पर आ गया। शरीर इतना ज्यादा कमजोर हो गया की अस्थि पिजंर शेष रह गया था।
एक दिन लड़के को चारपाई पर लेटा रखा था और उसका पिता साथ मे बैठा अपने पुत्र की ये दयनीय हालत देख कर दुःखी होकर उसकी और देख रहा था।
तभी लड़का अपने पिता से बोला की भाई अपना सब हिसाब हो गया बस अब कफन और लकड़ी का हिसाब बाकी है उसकी तैयारी कर लो। ये सुनकर उसके पिता ने सोचा की लड़के का दिमाग भी काम ना कर रहा है बीमारी के कारण और बोला बेटा मै तेरा बाप हूँ, भाई नही। तब लड़का बोला मै आपका वही भाई हुँ जो आप ने जहर खिलाकर मरवाया था। जिस सम्पति के लिऐ आप ने मुझे मरवाया, अब वो मेरे ईलाज के लिऐ आधी बिक चुकी है। आधी आपकी की शेष है। हमारा हिसाब हो गया। तब उसका पिता फुट फुट कर रोते हुए बोला की मेरा तो कुल नाश हो गया। जो किया मेरे आगे आ गया पर तेरी पत्नी का क्या दोष है जो इस बेचारी को जिन्दा जलाया जाऐगा(उस समय सतीप्रथा थी जिसमे पति के मरने के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ जला दिया जाता था)। तब वो लड़का बोला की वो वैद्य कहाँ है जिसने मुझे जहर खिलाया था। तब उसके पिता ने कहा की आप की मृत्यु के तीन साल बाद वो मर गया था।
तब लड़के ने कहा की ये वही दुष्ट वैद्य आज मेरी पत्नी रुप मे है। मेरे मरने पर इसे जिन्दा जलाया जाऐगा।
परमेश्वर कहते है कि कर्मों का लेखा यहीं भुगत के जाना होता है। इस लिए कोई भी बुरा काम करते हुए एक बार सोच विचार कर लिया करो।
महानता के लक्षण
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी,उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा -'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो,
दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।' माँ के उस पुत्र का नाम था ईश्वरचंद्र विद्यासागर
बन्दर और लकड़ी का खूंटा
एक समय शहर से कुछ ही दूरी पर एक मंदिर का निर्माण किया जा रहा था। मंदिर में लकडी का काम बहुत था इसलिए लकडी चीरने वाले बहुत से मज़दूर काम पर लगे हुए थे। यहां-वहां लकडी के लठ्टे पडे हुए थे और लठ्टे व शहतीर चीरने का काम चल रहा था। सारे मज़दूरों को दोपहर का भोजन करने के लिए शहर जाना पडता था, इसलिए दोपहर के समय एक घंटे तक वहां कोई नहीं होता था। एक दिन खाने का समय हुआ तो सारे मज़दूर काम छोडकर चल दिए। एक लठ्टा आधा चिरा रह गया था। आधे चिरे लठ्टे में मज़दूर लकडी का कीला फंसाकर चले गए। ऐसा करने से दोबारा आरी घुसाने में आसानी रहती है।
तभी वहां बंदरों का एक दल उछलता-कूदता आया। उनमें एक शरारती बंदर भी था, जो बिना मतलब चीजों से छेडछाड करता रहता था। पंगे लेना उसकी आदत थी। बंदरों के सरदार ने सबको वहां पडी चीजों से छेडछाड न करने का आदेश दिया। सारे बंदर पेडों की ओर चल दिए, पर वह शैतान बंदर सबकी नजर बचाकर पीछे रह गया और लगा अडंगेबाजी करने।
उसकी नजर अधचिरे लठ्टे पर पडी। बस, वह उसी पर पिल पडा और बीच में अडाए गए कीले को देखने लगा। फिर उसने पास पडी आरी को देखा। उसे उठाकर लकडी पर रगडने लगा। उससे किर्रर्र-किर्रर्र की आवाज़ निकलने लगी तो उसने गुस्से से आरी पटक दी। उन बंदरो की भाषा में किर्रर्र-किर्रर्र का अर्थ ‘निखट्टू’ था। वह दोबारा लठ्टे के बीच फंसे कीले को देखने लगा।
उसके दिमाग में कौतुहल होने लगा कि इस कीले को लठ्टे के बीच में से निकाल दिया जाए तो क्या होगा? अब वह कीले को पकडकर उसे बाहर निकालने के लिए ज़ोर आजमाईश करने लगा। लठ्टे के बीच फंसाया गया कीला तो दो पाटों के बीच बहुत मज़बूती से जकडा गया होता हैं, क्योंकि लठ्टे के दो पाट बहुत मज़बूत स्प्रिंग वाले क्लिप की तरह उसे दबाए रहते हैं।
बंदर खूब ज़ोर लगाकर उसे हिलाने की कोशिश करने लगा। कीला जोर लगाने पर हिलने व खिसकने लगा तो बंदर अपनी शक्ति पर खुश हो गया।
वह और ज़ोर से खौं-खौं करता कीला सरकाने लगा। इस धींगामुश्ती के बीच बंदर की पूंछ दो पाटों के बीच आ गई थी, जिसका उसे पता ही नहीं लगा।
उसने उत्साहित होकर एक जोरदार झटका मारा और जैसे ही कीला बाहर खिंचा, लठ्टे के दो चिरे भाग फटाक से क्लिप की तरह जुड गए और बीच में फंस गई बंदर की पूंछ। बंदर चिल्ला उठा।
तभी मज़दूर वहां लौटे। उन्हें देखते ही बंदर ने भागने के लिए ज़ोर लगाया तो उसकी पूंछ टूट गई। वह चीखता हुआ टूटी पूंछ लेकर भागा।
सियार और ढोल
एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे।
युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के ज़ोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज़ होती।
एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज़ सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज़ बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं ’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला।
एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज़ भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।
सियार बडबडाया 'ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।'
सियार फूंक-फूंककर क़दम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज़ हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।
'अब समझ आया।' सियार उढने की कोशिश करता हुआ बोला 'यह तो बाहर का खोल हैं। जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज़ बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।
अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला 'ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।'
सियारी पूछने लगी 'तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'
सियार ने उसे झिडकी दी 'क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाज़े हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाज़े से न भाग जाता?'
चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज़ निकली। सियार सियारी के कान में बोला 'सुनी उसकी आवाज? जरा सोच जिसकी आवाज़ ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।'
दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला 'होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।' दोनों ने ‘हूं’ की आवाज़ के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए 'हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।' और वे माथा पीटकर रह गए।
व्यापारी का पतन और उदय
वर्धमान नामक एक शहर में एक बहुत ही कुशल व्यापारी रहता था। राजा को उसकी क्षमताओं के बारे में पता था, और इसलिए उसने उसे राज्य का प्रशासक बना दिया। अपने कुशल तरीकों से उसने आम आदमी को भी खुश रखा था, और साथ ही दूसरी तरफ राजा को भी बहुत प्रभावित किया था।
कुछ दिनों बाद व्यापारी ने अपनी लड़की का विवाह तय किया। इस उपलक्ष्य में उसने एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया। इस भोज में उसने राज परिवार से लेकर प्रजा, सभी को आमंत्रित किया। भोज के दौरान उसने सभी को बहुत सम्मान दिया और सभी मेहमानों को आभूषण और उपहार दिए।
राजघराने का एक सेवक, जो महल में झाड़ू लगाता था, वह भी इस भोज में शामिल हुआ, मगर गलती से वह एक ऐसी कुर्सी पर बैठ गया जो राज परिवार के लिए नियत थी। यह देखकर व्यापारी आग-बबूला हो गया और उसने सेवक की गर्दन पकड़ कर उसे भोज से धक्के दे कर बाहर निकलवा दिया।
सेवक को बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने व्यापारी को सबक सिखाने की सोची।
कुछ दिनों बाद, एक बार सेवक राजा के कक्ष में झाड़ू लगा रहा था। उसने राजा को अर्धनिद्रा में देख कर बड़बड़ाना शुरू किया: “इस व्यापारी की यह मजाल की वह रानी के साथ दुर्व्यवहार करे। ”
यह सुन कर रहा अपने बिस्तर से कूद पड़ा और उसने सेवक से पूछा, क्या यह वाकई में सच है? क्या तुमने व्यापारी को दुर्व्यवहार करते देखा है?
सेवक ने तुरंत राजा के चरण पकडे और बोला: मुझे माफ़ कर दीजिये, मैं पूरी रात जुआ खेलता रहा और सो न सका। इसीलिए नींद में कुछ भी बड़बड़ा रहा हूँ।
राजा ने कुछ बोला तो नहीं, पर शक का बीज तो बोया जा चुका था। उसी दिन से राजा ने
व्यापारी के महल में निरंकुश घूमने पर पाबंदी लगा दी और उसके अधिकार कम कर दिए।
अगले दिन जब व्यापारी महल में आया तो उसे संतरियों ने रोक दिया। यह देख कर व्यापारी बहुत आश्चर्य -चकित हुआ। तभी वहीँ खड़े सेवक ने मज़े लेते हुए कहा, ऐ संतरियों, जानते नहीं ये कौन हैं? ये बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हैं और तुम्हें बाहर फिंकवा सकते हैं, जैसा इन्होने मेरे साथ अपने भोज में किया था। तनिक सावधान रहना। यह सुनते ही व्यापारी को सारा माजरा समझ में आ गया।
कुछ दिनों के बाद उसने उस सेवक को अपने घर बुलाया, उसकी खूब आव-भगत की और उपहार भी दिए। फिर उसने बड़ी विनम्रता से भोज वाले दिन के लिए क्षमा मांगते हुआ कहा की उसने जो भी किया गलत किया।
सेवक खुश हो चुका था। उसने कहा की न केवल आपने मुझसे माफ़ी मांगी, पर मेरी इतनी आप-भगत भी की। आप चिंता न करें, मैं राजा से आपका खोया हुआ सम्मान वापस दिलाउंगा।
अगले दिन उसने राजा के कक्ष में झाड़ू लगाते हुआ जब राजा को अर्ध-निद्रा में देखा तो फिर बड़बड़ाने लगा “हे भगवान, हमारा राजा तो ऐसा मूर्ख है की वह गुसलखाने में खीरे खाता है”
यह सुनकर राजा क्रोध से भर उठा और बोला – मूर्ख सेवक, तुम्हारी ऐसी बोलने की हिम्मत कैसे हुई? तुम अगर मेरे कक्ष के सेवक न होते तो तुम्हें नौकरी से निकाल देता। सेवक ने दुबारा चरणों में गिर कर राजा से माफ़ी मांगी और दुबारा कभी न बड़बड़ाने की कसम खाई।
उधर राजा ने सोचा कि जब यह मेरे बारे में ऐसे गलत बोल सकता है तोह अवश्य ही इसने व्यापारी के बारे में भी गलत हो बोला होगा, जिसकी वजह से मैंने उसे बेकार में दंड दिया।
अगले दिन ही राजा ने व्यापारी को महल में उसकी खोयी प्रतिष्ठा वापस दिला दी।
मूर्ख साधू और ठग
एक बार की बात है, किसी गाँव के मंदिर में देव शर्मा नाम का एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। गाँव में सभी उसका सम्मान करते थे। उसे अपने भक्तों से दान में तरह तरह के वस्त्र, उपहार, खाद्य सामग्री और पैसे मिलते थे। उन वस्त्रों को बेचकर साधू ने काफी धन जमा कर लिया था।
साधू कभी किसी पर विश्वास नहीं करता था और हमेशा अपने धन की सुरक्षा के लिए चिंतित रहता था। वह अपने धन को एक पोटली में रखता था और उसे हमेशा अपने साथ लेकर ही चलता था।
उसी गाँव में एक ठग रहता था। बहुत दिनों से उसकी निगाह साधू के धन पर थी। ठग हमेशा साधू का पीछा किया करता था, लेकिन साधू उस गठरी को कभी अपने से अलग नहीं करता था।
आखिरकार, उस ठग ने एक छात्र का वेश धारण किया और उस साधू के पास गया। उसने साधू से मिन्नत की कि वह उसे अपना शिष्य बना ले क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त करना चाहता था। साधू तैयार हो गया और इस तरह से वह ठग साधू के साथ ही मंदिर में रहने लगा।
ठग मंदिर की साफ सफाई से लेकर अन्य सारे कम करता था और ठग ने साधू की भी खूब सेवा की और जल्दी ही उसका विश्वासपात्र बन गया।
एक दिन साधू को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए आमंत्रित किया गया, साधू ने वह आमंत्रण स्वीकार किया और निश्चित दिन साधू अपने शिष्य के साथ अनुष्ठान में भाग लेने के लिए निकल पड़ा।
रास्ते में एक नदी पड़ी और साधू ने स्नान करने की इक्षा व्यक्त की। उसने पैसों की गठरी को एक कम्बल के भीतर रखा और उसे नदी के किनारे रख दिया। उसने ठग से सामान की रखवाली करने को कहा और खुद नहाने चला गया। ठग को तो कब से इसी पल का इंतज़ार था। जैसे ही साधू नदी में डुबकी लगाने गया, वह रुपयों की गठरी लेकर चम्पत हो गया।
लड़ती भेड़ें और सियार
एक दिन एक सियार किसी गाँव से गुजर रहा था। उसने गाँव के बाजार के पास लोगों की एक भीड़ देखी। कौतूहलवश वह सियार भीड़ के पास यह देखने गया कि क्या हो रहा है। सियार ने वहां देखा कि दो बकरे आपस में लड़ाई कर रहे थे। दोनों ही बकरे काफी तगड़े थे इसलिए उनमे जबरदस्त लड़ाई हो रही थी। सभी लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे थे और तालियां बजा रहे थे। दोनों बकरे बुरी तरह से लहूलुहान हो चुके थे और सड़क पर भी खून बह रहा था।
जब सियार ने इतना सारा ताजा खून देखा तो अपने आप को रोक नहीं पाया। वह तो बस उस ताजे खून का स्वाद लेना चाहता था और बकरों पर अपना हाथ साफ़ करना चाहता था। सियार ने आव देखा न ताव और बकरों पर टूट पड़ा। लेकिन दोनों बकरे बहुत ताकतवर थे। उन्होंने सियार की जमकर धुनाई कर दी जिससे सियार वहीँ पर ढेर हो गया।
दुष्ट सर्प और कौवे
एक जंगल में एक बहुत पुराना बरगद का पेड था। उस पेड पर घोंसला बनाकर एक कौआ-कव्वी का जोडा रहता था। उसी पेड के खोखले तने में कहीं से आकर एक दुष्ट सर्प रहने लगा। हर वर्ष मौसम आने पर कव्वी घोंसले में अंडे देती और दुष्ट सर्प मौक़ा पाकर उनके घोंसले में जाकर अंडे खा जाता। एक बार जब कौआ व कव्वी जल्दी भोजन पाकर शीघ्र ही लौट आए तो उन्होंने उस दुष्ट सर्प को अपने घोंसले में रखे अंडों पर झपटते देखा।
अंडे खाकर सर्प चला गया कौए ने कव्वी को ढाडस बंधाया 'प्रिये, हिम्मत रखो। अब हमें शत्रु का पता चल गया हैं। कुछ उपाय भी सोच लेंगे।'
कौए ने काफ़ी सोचा विचारा और पहले वाले घोंसले को छोड उससे काफ़ी ऊपर टहनी पर घोंसला बनाया और कव्वी से कहा 'यहां हमारे अंडे सुरक्षित रहेंगे। हमारा घोंसला पेड की चोटी के किनारे निकट हैं और ऊपर आसमान में चील मंडराती रहती हैं। चील सांप की बैरी हैं। दुष्ट सर्प यहां तक आने का साहस नहीं कर पाएगा।'
कौवे की बात मानकर कव्वी ने नए घोंसले में अंडे सुरक्षित रहे और उनमें से बच्चे भी निकल आए।
उधर सर्प उनका घोंसला ख़ाली देखकर यह समझा कि कि उसके डर से कौआ कव्वी शायद वहां से चले गए हैं पर दुष्ट सर्प टोह लेता रहता था। उसने देखा कि कौआ-कव्वी उसी पेड से उडते हैं और लौटते भी वहीं हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उन्होंने नया घोंसला उसी पेड पर ऊपर बना रखा हैं। एक दिन सर्प खोह से निकला और उसने कौओं का नया घोंसला खोज लिया।
घोंसले में कौआ दंपती के तीन नवजात शिशु थे। दुष्ट सर्प उन्हें एक-एक करके घपाघप निगल गया और अपने खोह में लौटकर डकारें लेने लगा।
कौआ व कव्वी लौटे तो घोंसला ख़ाली पाकर सन्न रह गए। घोंसले में हुई टूट-फूट व नन्हें कौओं के कोमल पंख बिखरे देखकर वह सारा माजरा समझ गए। कव्वी की छाती तो दुख से फटने लगी। कव्वी बिलख उठी 'तो क्या हर वर्ष मेरे बच्चे सांप का भोजन बनते रहेंगे?'
कौआ बोला 'नहीं! यह माना कि हमारे सामने विकट समस्या हैं पर यहां से भागना ही उसका हल नहीं हैं। विपत्ति के समय ही मित्र काम आते हैं। हमें लोमडी मित्र से सलाह लेनी चाहिए।'
दोनों तुरंत ही लोमडी के पास गए। लोमडी ने अपने मित्रों की दुख भरी कहानी सुनी। उसने कौआ तथा कव्वी के आंसू पोंछे। लोमडी ने काफ़ी सोचने के बाद कहा 'मित्रो! तुम्हें वह पेड छोडकर जाने की जरुरत नहीं हैं। मेरे दिमाग में एक तरकीब आ रही हैं, जिससे उस दुष्टसर्प से छुटकारा पाया जा सकता हैं।'
लोमडी ने अपने चतुर दिमाग में आई तरकीब बताई। लोमडी की तरकीब सुनकर कौआ-कव्वी खुशी से उछल पडें। उन्होंने लोमडी को धन्यवाद दिया और अपने घर लौट आए।
अगले ही दिन योजना अमल में लानी थी। उसी वन में बहुत बडा सरोवर था। उसमें कमल और नरगिस के फूल खिले रहते थे। हर मंगलवार को उस प्रदेश की राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ वहां जल-क्रीडा करने आती थी। उनके साथ अंगरक्षक तथा सैनिक भी आते थे।
इस बार राजकुमारी आई और सरोवर में स्नान करने जल में उतरी तो योजना के अनुसार कौआ उडता हुआ वहां आया। उसने सरोवर तट पर राजकुमारी तथा उसकी सहेलियों द्वारा उतारकर रखे गए कपडों व आभूषणों पर नजर डाली। कपडे से सबसे ऊपर था राजकुमारी का प्रिय हीरे व मोतियों का विलक्षण हार।
कौए ने राजकुमारी तथा सहेलियों का ध्यान अपनी और आकर्षित करने के लिए ‘कांव-कांव’
का शोर मचाया। जब सबकी नजर उसकी ओर घूमी तो कौआ राजकुमारी का हार चोंच में दबाकर ऊपर उड गया। सभी सहेलियां चीखी 'देखो, देखो! वह राजकुमारी का हार उठाकर ले जा रहा हैं।'
सैनिकों ने ऊपर देखा तो सचमुच एक कौआ हार लेकर धीरे-धीरे उडता जा रहा था। सैनिक उसी दिशा में दौडने लगे। कौआ सैनिकों को अपने पीचे लगाकर धीरे-धीरे उडता हुआ उसी पेड की ओर ले आया। जब सैनिक कुच ही दूर रह गए तो कौए ने राजकुमारी का हार इस प्रकार गिराया कि वह सांप वाले खोह के भीतर जा गिरा।
सैनिक दौडकर खोह के पास पहुंचे। उनके सरदार ने खोह के भीतर झांका। उसने वहां हार और उसके पास में ही एक काले सर्प को कुडंली मारे देखा। वह चिल्लाया 'पीछे हटो! अंदर एक नाग हैं।' सरदार ने खोह के भीतर भाला मारा। सर्प घायल हुआ और फुफकारता हुआ बाहर निकला। जैसे ही वह बाहर आया, सैनिकों ने भालों से उसके टुकडे-टुकडे कर डाले।
बगुला भगत और केकड़ा
एक वन प्रदेश में एक बहुत बडा तालाब था। हर प्रकार के जीवों के लिए उसमें भोजन सामग्री होने के कारण वहां नाना प्रकार के जीव, पक्षी, मछलियां, कछुए और केकडे आदि वास करते थे। पास में ही बगुला रहता था, जिसे परिश्रम करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उसकी आंखें भी कुछ कमज़ोर थीं। मछलियां पकडने के लिए तो मेहनत करनी पडती हैं, जो उसे खलती थी। इसलिए आलस्य के मारे वह प्रायः भूखा ही रहता। एक टांग पर खडा यही सोचता रहता कि क्या उपाय किया जाए कि बिना हाथ-पैर हिलाए रोज भोजन मिले। एक दिन उसे एक उपाय सूझा तो वह उसे आजमाने बैठ गया।
बगुला तालाब के किनारे खडा हो गया और लगा आंखों से आंसू बहाने। एक केकडे ने उसे आंसू बहाते देखा तो वह उसके निकट आया और पूछने लगा 'मामा, क्या बात है भोजन के लिए मछलियों का शिकार करने की बजाय खडे आंसू बहा रहे हो?'
बगुले ने ज़ोर की हिचकी ली और भर्राए गले से बोला'बेटे, बहुत कर लिया मछलियों का शिकार। अब मैं यह पाप कार्य और नहीं करुंगा। मेरी आत्मा जाग उठी हैं। इसलिए मैं निकट आई मछलियों को भी नहीं पकड रहा हूं। तुम तो देख ही रहे हो।'
केकडा बोला 'मामा, शिकार नहीं करोगे, कुछ खाओगे नहीं तो मर नहीं जाओगे?'
बगुले ने एक और हिचकी ली 'ऐसे जीवन का नष्ट होना ही अच्छा है बेटे, वैसे भी हम सबको जल्दी मरना ही है। मुझे ज्ञात हुआ है कि शीघ्र ही यहां बारह वर्ष लंबा सूखा पडेगा।'
बगुले ने केकडे को बताया कि यह बात उसे एक त्रिकालदर्शी महात्मा ने बताई हैं, जिसकी भविष्यवाणी कभी ग़लत नहीं होती। केकडे ने जाकर सबको बताया कि कैसे बगुले ने बलिदान व भक्ति का मार्ग अपना लिया हैं और सूखा पडने वाला हैं।
उस तालाब के सारे जीव मछलियां, कछुए, केकडे, बत्तखें व सारस आदि दौडे-दौडे बगुले के पास आए और बोले 'भगत मामा, अब तुम ही हमें कोई बचाव का रास्ता बताओ। अपनी अक्ल लडाओ तुम तो महाज्ञानी बन ही गए हो।'
बगुले ने कुछ सोचकर बताया कि वहां से कुछ कोस दूर एक जलाशय हैं जिसमें पहाडी झरना बहकर गिरता हैं। वह कभी नहीं सूखता। यदि जलाशय के सब जीव वहां चले जाएं तो बचाव हो सकता हैं। अब समस्या यह थी कि वहां तक जाया कैसे जाएं? बगुले भगत ने यह समस्या भी सुलझा दी 'मैं तुम्हें एक-एक करके अपनी पीठ पर बिठाकर वहां तक पहुंचाऊंगा क्योंकि अब मेरा सारा शेष जीवन दूसरों की सेवा करने में गुजरेगा।'
सभी जीवों ने गद्-गद् होकर ‘बगुला भगतजी की जै’
के नारे लगाए।
अब बगुला भगत के पौ-बारह हो गई। वह रोज एक जीव को अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाता और कुछ दूर ले जाकर एक चट्टान के पास जाकर उसे उस पर पटककर मार डालता और खा जाता। कभी मूड हुआ तो भगतजी दो फेरे भी लगाते और दो जीवों को चट कर जाते तालाब में जानवरों की संख्या घटने लगी। चट्टान के पास मरे जीवों की हड्डियों का ढेर बढने लगा और भगतजी की सेहत बनने लगी। खा-खाकर वह खूब मोटे हो गए। मुख पर लाली आ गई और पंख चर्बी के तेज से चमकने लगे। उन्हें देखकर दूसरे जीव कहते 'देखो, दूसरों की सेवा का फल और पुण्य भगतजी के शरीर को लग रहा है।'
बगुला भगत मन ही मन खूब हंसता। वह सोचता कि देखो दुनिया में कैसे-कैसे मूर्ख जीव भरे पडे हैं, जो सबका विश्वास कर लेते हैं। ऐसे मूर्खों की दुनिया में थोडी चालाकी से काम लिया जाए तो मजे ही मजे हैं। बिना हाथ-पैर हिलाए खूब दावत उडाई जा सकती है संसार से मूर्ख प्राणी कम करने का मौक़ा मिलता है बैठे-बिठाए पेट भरने का जुगाड हो जाए तो सोचने का बहुत समय मिल जाता हैं।
बहुत दिन यही क्रम चला। एक दिन केकडे ने बगुले से कहा 'मामा, तुमने इतने सारे जानवर यहां से वहां पहुंचा दिए, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आई।'
भगतजी बोले 'बेटा, आज तेरा ही नंबर लगाते हैं, आजा मेरी पीठ पर बैठ जा।'
केकडा खुश होकर बगुले की पीठ पर बैठ गया। जब वह चट्टान के निकट पहुंचा तो वहां हड्डियों का पहाड देखकर केकडे का माथा ठनका। वह हकलाया 'यह हड्डियों का ढेर कैसा है? वह जलाशय कितनी दूर है, मामा?'
बगुला भगत ठां-ठां करके खूब हंसा और बोला 'मूर्ख, वहां कोई जलाशय नहीं है। मैं एक- एक को पीठ पर बिठाकर यहां लाकर खाता रहता हूं। आज तू मरेगा।'
केकडा सारी बात समझ गया। वह सिहर उठा परन्तु उसने हिम्मत न हारी और तुरंत अपने जंबूर जैसे पंजों को आगे बढाकर उनसे दुष्ट बगुले की गर्दन दबा दी और तब तक दबाए रखी, जब तक उसके प्राण पखेरु न उड गए।
फिर केकडा बगुले भगत का कटा सिर लेकर तालाब पर लौटा और सारे जीवों को सच्चाई बता दी कि कैसे दुष्ट बगुला भगत उन्हें धोखा देता रहा।
चतुर खरगोश और शेर
किसी घने वन में एक बहुत बड़ा शेर रहता था। वह रोज शिकार पर निकलता और एक ही नहीं, दो नहीं कई-कई जानवरों का काम तमाम देता। जंगल के जानवर डरने लगे कि अगर शेर इसी तरह शिकार करता रहा तो एक दिन ऐसा आयेगा कि जंगल में कोई भी जानवर नहीं बचेगा।
सारे जंगल में सनसनी फैल गई। शेर को रोकने के लिये कोई न कोई उपाय करना ज़रूरी था। एक दिन जंगल के सारे जानवर इकट्ठा हुए और इस प्रश्न पर विचार करने लगे। अन्त में उन्होंने तय किया कि वे सब शेर के पास जाकर उनसे इस बारे में बात करें। दूसरे दिन जानवरों के एक दल शेर के पास पहुंचा। उनके अपनी ओर आते देख शेर घबरा गया और उसने गरजकर पूछा, ‘‘क्या बात है ? तुम सब यहां क्यों आ रहे हो ?’’
जानवर दल के नेता ने कहा,
‘‘महाराज, हम आपके पास निवेदन करने आये हैं। आप राजा हैं और हम आपकी प्रजा। जब आप शिकार करने निकलते हैं तो बहुत जानवर मार डालते हैं। आप सबको खा भी नहीं पाते। इस तरह से हमारी संख्या कम होती जा रही है। अगर ऐसा ही होता रहा तो कुछ ही दिनों में जंगल में आपके सिवाय और कोई भी नहीं बचेगा। प्रजा के बिना राजा भी कैसे रह सकता है ? यदि हम सभी मर जायेंगे तो आप भी राजा नहीं रहेंगे। हम चाहते हैं कि आप सदा हमारे राजा बने रहें। आपसे हमारी विनती है कि आप अपने घर पर ही रहा करें। हर रोज स्वयं आपके खाने के लिए एक जानवर भेज दिया करेंगे। इस तरह से राजा और प्रजा दोनो ही चैन से रह सकेंगे।’’
शेर को लगा कि जानवरों की बात में सच्चाई है। उसने पलभर सोचा, फिर बोला अच्छी बात है। मैं तुम्हारे सुझाव को मान लेता हूं। लेकिन याद रखना, अगर किसी भी दिन तुमने मेरे खाने के लिये पूरा भोजन नहीं भेजा तो मैं जितने जानवर चाहूंगा, मार डालूंगा।’’
जानवरों के पास तो और कोई चारा नहीं। इसलिये उन्होंने शेर की शर्त मान ली और अपने-अपने घर चले गये।
उस दिन से हर रोज शेर के खाने के लिये एक जानवर भेजा जाने लगा। इसके लिये जंगल में रहने वाले सब जानवरों में से एक-एक जानवर, बारी-बारी से चुना जाता था। कुछ दिन बाद खरगोशों की बारी भी आ गई। शेर के भोजन के लिये एक नन्हें से खरगोश को चुना गया। वह खरगोश जितना छोटा था, उतना ही चतुर भी था। उसने सोचा, बेकार में शेर के हाथों मरना मूर्खता है। अपनी जान बचाने का कोई न कोई उपाय अवश्य करना चाहिये, और हो सके तो कोई ऐसी तरकीब ढूंढ़नी चाहिये जिसे सभी को इस मुसीबत से सदा के लिए छुटकारा मिल जाये। आखिर उसने एक तरकीब सोच ही निकाली।
खरगोश धीरे-धीरे आराम से शेर के घर की ओर चल पड़ा। जब वह शेर के पास पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी।
भूख के मारे शेर का बुरा हाल हो रहा था। जब उसने सिर्फ एक छोटे से खरगोश को अपनी ओर आते देखा तो गुस्से से बौखला उठा और गरजकर बोला, ‘‘किसने तुम्हें भेजा है ? एक तो पिद्दी जैसे हो, दूसरे इतनी देर से आ रहे हो। जिन बेवकूफों ने तुम्हें भेजा है मैं उन सबको ठीक करूंगा। एक-एक का काम तमाम न किया तो मेरा नाम भी शेर नहीं।’’
नन्हे खरगोश ने आदर से ज़मीन तक झुककर, ‘‘महाराज, अगर आप कृपा करके मेरी बात सुन लें तो मुझे या और जानवरों को दोष नहीं देंगे। वे तो जानते थे कि एक छोटा सा खरगोश आपके भोजन के लिए पूरा नहीं पड़ेगा, ‘इसलिए उन्होंने छह खरगोश भेजे थे। लेकिन रास्ते में हमें एक और शेर मिल गया। उसने पांच खरगोशों को मारकर खा लिया।’’
यह सुनते ही शेर दहाड़कर बोला,
‘‘क्या कहा ? दूसरा शेर ? कौन है वह ? तुमने उसे कहां देखा ?’’
‘‘महाराज, वह तो बहुत ही बड़ा शेर है’’, खरगोश ने कहा,
‘‘वह ज़मीन के अन्दर बनी एक बड़ी गुफा में से निकला था। वह तो मुझे ही मारने जा रहा था। पर मैंने उससे कहा,
‘सरकार, आपको पता नहीं कि आपने क्या अन्धेर कर दिया है। हम सब अपने महाराज के भोजन के लिये जा रहे थे, लेकिन आपने उनका सारा खाना खा लिया है। हमारे महाराज ऐसी बातें सहन नहीं करेंगे। वे ज़रूर ही यहाँ आकर आपको मार डालेंगे।’
‘‘इस पर उसने पूछा,
‘कौन है तुम्हारा राजा ?’ मैंने जवाब दिया,
‘हमारा राजा जंगल का सबसे बड़ा शेर है।’
‘‘महाराज, ‘मेरे ऐसा कहते ही वह गुस्से से लाल-पीला होकर बोला बेवकूफ इस जंगल का राजा सिर्फ मैं हूं। यहां सब जानवर मेरी प्रजा हैं। मैं उनके साथ जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। जिस मूर्ख को तुम अपना राजा कहते हो उस चोर को मेरे सामने हाजिर करो। मैं उसे बताऊंगा कि असली राजा कौन है।’ महाराज इतना कहकर उस शेर ने आपको लिवाने के लिए मुझे यहां भेज दिया।’’
खरगोश की बात सुनकर शेर को बड़ा गुस्सा आया और वह बार-बार गरजने लगा। उसकी भयानक गरज से सारा जंगल दहलने लगा। ‘‘मुझे फौरन उस मूर्ख का पता बताओ’’, शेर ने दहाड़कर कहा,
‘‘जब तक मैं उसे जान से न मार दूँगा मुझे चैन नहीं मिलेगा।’’
‘‘बहुत अच्छा महाराज,’’ खरगोश ने कहा ‘‘मौत ही उस दुष्ट की सज़ा है। अगर मैं और बड़ा और मज़बूत होता तो मैं खुद ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर देता।’’
‘‘चलो, ‘रास्ता दिखाओ,’’ शेर ने कहा,
‘‘फौरन बताओ किधर चलना है ?’’
‘‘इधर आइये महाराज, इधर, ‘‘खरगोश रास्ता दिखाते हुआ शेर को एक कुएँ के पास ले गया और बोला,
‘‘महाराज, वह दुष्ट शेर ज़मीन के नीचे किले में रहता है। जरा सावधान रहियेगा। किले में छुपा दुश्मन खतरनाक होता है।’’
‘‘मैं उससे निपट लूँगा,’’ शेर ने कहा,
‘‘तुम यह बताओ कि वह है कहाँ ?’’
‘‘पहले जब मैंने उसे देखा था तब तो वह यहीं बाहर खड़ा था। लगता है आपको आता देखकर वह किले में घुस गया। आइये मैं आपको दिखाता हूँ।’’
खरगोश ने कुएं के नजदीक आकर शेर से अन्दर झांकने के लिये कहा। शेर ने कुएं के अन्दर झांका तो उसे कुएं के पानी में अपनी परछाईं दिखाई दी।
परछाईं को देखकर शेर ज़ोर से दहाड़ा। कुएं के अन्दर से आती हुई अपने ही दहाड़ने की गूंज सुनकर उसने समझा कि दूसरा शेर भी दहाड़ रहा है। दुश्मन को तुरंत मार डालने के इरादे से वह फौरन कुएं में कूद पड़ा।
कूदते ही पहले तो वह कुएं की दीवार से टकराया फिर धड़ाम से पानी में गिरा और डूबकर मर गया। इस तरह चतुराई से शेर से छुट्टी पाकर नन्हा खरगोश घर लौटा। उसने जंगल के जानवरों को शेर के मारे जाने की कहानी सुनाई। दुश्मन के मारे जाने की खबर से सारे जंगल में खुशी फैल गई। जंगल के सभी जानवर खरगोश की जय-जयकार करने लगे।
खटमल और बेचारी जूं
एक राजा के शयनकक्ष में मंदरीसर्पिणी नाम की जूं ने डेरा डाल रखा था। रोज रात को जब राजा जाता तो वह चुपके से बाहर निकलती और राजा का खून चूसकर फिर अपने स्थान पर जा छिपती।
संयोग से एक दिन अग्निमुख नाम का एक खटमल भी राजा के शयनकक्ष में आ पहुंचा। जूं ने जब उसे देखा तो वहां से चले जाने को कहा। उसने अपने अधिकार-क्षेत्र में किसी अन्य का दखल सहन नहीं था।
लेकिन खटमल भी कम चतुर न था, बोलो, ‘‘देखो, मेहमान से इसी तरह बर्ताव नहीं किया जाता, मैं आज रात तुम्हारा मेहमान हूं।’’ जूं अततः खटमल की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गई और उसे शरण देते हुए बोली,
‘‘ठीक है, तुम यहां रातभर रुक सकते हो, लेकिन राजा को काटोगे तो नहीं उसका खून चूसने के लिए।’’
खटमल बोला, ‘‘लेकिन मैं तुम्हारा मेहमान है, मुझे कुछ तो दोगी खाने के लिए। और राजा के खून से बढ़िया भोजन और क्या हो सकता है।’’
‘‘ठीक है।’’
जूं बोली, ‘‘तुम चुपचाप राजा का खून चूस लेना,
उसे पीड़ा का आभास नहीं होना चाहिए।’’
‘‘जैसा तुम कहोगी, बिलकुल वैसा ही होगा।’’ कहकर खटमल शयनकक्ष में राजा के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
रात ढलने पर राजा वहां आया और बिस्तर पर पड़कर सो गया। उसे देख खटमल सबकुछ भूलकर राजा को काटने लगा, खून चूसने के लिए। ऐसा स्वादिष्ट खून उसने पहली बार चखा था, इसलिए वह राजा को जोर-जोर से काटकर उसका खून चूसने लगा। इससे राजा के शरीर में तेज खुजली होने लगी और उसकी नींद उचट गई। उसने क्रोध में भरकर अपने सेवकों से खटमल को ढूंढकर मारने को कहा।
यह सुनकर चतुर खटमल तो पंलग के पाए के नीचे छिप गया लेकिन चादर के कोने पर बैठी जूं राजा के सेवकों की नजर में आ गई। उन्होंने उसे पकड़ा और मार डाला।
नीले सियार की कहानी
एक बार की बात हैं कि एक सियार जंगल में एक पुराने पेड के नीचे खडा था। पूरा पेड हवा के तेज झोंके से गिर पडा। सियार उसकी चपेट में आ गया और बुरी तरह घायल हो गया। वह किसी तरह घिसटता-घिसटता अपनी मांद तक पहुंचा। कई दिन बाद वह मांद से बाहर आया। उसे भूख लग रही थी। शरीर कमज़ोर हो गया था तभी उसे एक खरगोश नजर आया। उसे दबोचने के लिए वह झपटा। सियार कुछ दूर भागकर हांफने लगा। उसके शरीर में जान ही कहां रह गई थी? फिर उसने एक बटेर का पीछा करने की कोशिश की। यहां भी वह असफल रहा। हिरण का पीछा करने की तो उसकी हिम्मत भी न हुई। वह खडा सोचने लगा। शिकार वह कर नहीं पा रहा था। भूखों मरने की नौबत आई ही समझो। क्या किया जाए? वह इधर उधर घूमने लगा पर कहीं कोई मरा जानवर नहीं मिला। घूमता-घूमता वह एक बस्ती में आ गया। उसने सोचा शायद कोई मुर्गी या उसका बच्चा हाथ लग जाए। सो वह इधर-उधर गलियों में घूमने लगा।
तभी कुत्ते भौं-भौं करते उसके पीछे पड गए। सियार को जान बचाने के लिए भागना पडा। गलियों में घुसकर उनको छकाने की कोशिश करने लगा पर कुत्ते तो कस्बे की गली-गली से परिचित थे। सियार के पीछे पडे कुत्तों की टोली बढती जा रही थी और सियार के कमज़ोर शरीर का बल समाप्त होता जा रहा था। सियार भागता हुआ रंगरेजों की बस्ती में आ पहुंचा था। वहां उसे एक घर के सामने एक बडा ड्रम नजर आया। वह जान बचाने के लिए उसी ड्रम में कूद पडा। ड्रम में रंगरेज ने कपडे रंगने के लिए रंग घोल रखा था।
कुत्तों का टोला भौंकता चला गया। सियार सांस रोककर रंग में डूबा रहा। वह केवल सांस लेने के लिए अपनी थूथनी बाहर निकालता। जब उसे पूरा यकीन हो गया कि अब कोई ख़तरा नहीं है तो वह बाहर निकला। वह रंग में भीग चुका था। जंगल में पहुंचकर उसने देखा कि उसके शरीर का सारा रंग हरा हो गया है। उस ड्रम में रंगरेज ने हरा रंग घोल रखा था। उसके हरे रंग को जो भी जंगली जीव देखता, वह भयभीत हो जाता। उनको खौफ से कांपते देखकर रंगे सियार के दुष्ट दिमाग में एक योजना आई।
रंगे सियार ने डरकर भागते जीवों को आवाज़ दी 'भाइओ, भागो मत मेरी बात सुनो।'
उसकी बात सुनकर सभी जानवर भागते जानवर ठिठके।
उनके ठिठकने का रंगे सियार ने फ़ायदा उठाया और बोला 'देखो, देखो मेरा रंग। ऐसा रंग किसी जानवर का धरती पर हैं? नहीं न। मतलब समझो। भगवान ने मुझे यह ख़ास रंग तुम्हारे पास भेजा हैं। तुम सब जानवरों को बुला लाओ तो मैं भगवान का संदेश सुनाऊं।'
उसकी बातों का सब पर गहरा प्रभाव पडा। वे जाकर जंगल के दूसरे सभी जानवरों को बुलाकर लाए। जब सब आ गए तो रंगा सियार एक ऊंचे पत्थर पर चढकर बोला 'वन्य प्राणियो, प्रजापति ब्रह्मा ने मुझे खुद अपने हाथों से इस अलौकिक रंग का प्राणी बनाकर कहा कि संसार में जानवरों का कोई शासक नहीं है। तुम्हें जाकर जानवरों का राजा बनकर उनका कल्याण करना है। तुम्हार नाम सम्राट ककुदुम होगा। तीनों लोकों के वन्य जीव तुम्हारी प्रजा होंगे। अब तुम लोग अनाथ नहीं रहे। मेरी छत्र-छाया में निर्भय होकर रहो।'
सभी जानवर वैसे ही सियार के अजीब रंग से चकराए हुए थे। उसकी बातों ने तो जादू का काम किया। शेर, बाघ व चीते की भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई। उसकी बात काटने की किसी में हिम्मत न हुई। देखते ही देखते सारे जानवर उसके चरणों में लोटने लगे और एक स्वर में बोले 'हे बह्मा के दूत, प्राणियों में श्रेष्ठ ककुदुम, हम आपको अपना सम्राट स्वीकार करते हैं। भगवान की इच्छा का पालन करके हमें बडी प्रसन्नता होगी।'
एक बूढे हाथी ने कहा 'हे सम्राट, अब हमें बताइए कि हमार क्या कर्तव्य हैं?'
रंगा सियार सम्राट की तरह पंजा उठाकर बोला 'तुम्हें अपने सम्राट की खूब सेवा और आदर करना चाहिए। उसे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। हमारे खाने-पीने का शाही प्रबंध होना चाहिए।'
शेर ने सिर झुकाकर कहा 'महाराज, ऐसा ही होगा। आपकी सेवा करके हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।'
बस, सम्राट ककुदुम बने रंगे सियार के शाही ठाट हो गए। वह राजसी शान से रहने लगा।
कई लोमडियां उसकी सेवा में लगी रहतीं भालू पंखा झुलाता। सियार जिस जीव का मांस खाने की इच्छा ज़ाहिर करता, उसकी बलि दी जाती।
जब सियार घूमने निकलता तो हाथी आगे-आगे सूंड उठाकर बिगुल की तरह चिंघाडता चलता। दो शेर उसके दोनों ओर कमांडो बाडी गार्ड की तरह होते।
रोज ककुदुम का दरबार भी लगता। रंगे सियार ने एक चालाकी यह कर दी थी कि सम्राट बनते ही सियारों को शाही आदेश जारी कर उस जंगल से भगा दिया था। उसे अपनी जाति के सियारों द्वारा पहचान लिए जाने का ख़तरा था।
एक दिन सम्राट ककुदुम खूब खा-पीकर अपने शाही मांद में आराम कर रहा था कि बाहर उजाला देखकर उठा। बाहर आया चांदनी रात खिली थी। पास के जंगल में सियारों की टोलियां ‘हू हू SSS’ की बोली बोल रही थीं। उस आवाज़ को सुनते ही ककुदुम अपना आपा खो बैठा। उसके अदंर के जन्मजात स्वभाव ने ज़ोर मारा और वह भी मुंह चांद की ओर उठाकर और सियारों के स्वर में मिलाकर ‘हू हू SSS’ करने लगा।
शेर और बाघ ने उसे ’हू हू SSS’ करते देख लिया। वे चौंके, बाघ बोला 'अरे, यह तो सियार है। हमें धोखा देकर सम्राट बना रहा। मारो नीच को।'
शेर और बाघ उसकी ओर लपके और देखते ही देखते उसका तिया-पांचा कर डाला।
शेर, ऊंट, सियार और कौवा
किसी वन में मदोत्कट नाम का सिंह निवास करता था। बाघ, कौआ और सियार, ये तीन उसके नौकर थे। एक दिन उन्होंने एक ऐसे उंट को देखा जो अपने गिरोह से भटककर उनकी ओर आ गया था। उसको देखकर सिंह कहने लगा, “अरे वाह! यह तो विचित्र जीव है। जाकर पता तो लगाओ कि यह वन्य प्राणी है अथवा कि ग्राम्य प्राणी” यह सुनकर कौआ बोला, “स्वामी! यह ऊंट नाम का जीव ग्राम्य-प्राणी है और आपका भोजन है। आप इसको मारकर खा जाइए।”
सिंह बोला, “ मैं अपने यहां आने वाले अतिथि को नहीं मारता। कहा गया है कि विश्वस्त और निर्भय होकर अपने घर आए शत्रु को भी नहीं मारना चाहिए। अतः उसको अभयदान देकर यहां मेरे पास ले आओ जिससे मैं उसके यहां आने का कारण पूछ सकूं।”
सिंह की आज्ञा पाकर उसके अनुचर ऊंट के पास गए और उसको आदरपूर्वक सिंह के पास ले लाए। ऊंट ने सिंह को प्रणाम किया और बैठ गया। सिंह ने जब उसके वन में विचरने का कारण पूछा तो उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह साथियों से बिछुड़कर भटक गया है। सिंह के कहने पर उस दिन से वह कथनक नाम का ऊंट उनके साथ ही रहने लगा।
उसके कुछ दिन बाद मदोत्कट सिंह का किसी जंगली हाथी के साथ घमासान युद्ध हुआ। उस हाथी के मूसल के समान दांतों के प्रहार से सिंह अधमरा तो हो गया किन्तु किसी प्रकार जीवित रहा, पर वह चलने-फिरने में अशक्त हो गया था। उसके अशक्त हो जाने से कौवे आदि उसके नौकर भूखे रहने लगे। क्योंकि सिंह जब शिकार करता था तो उसके नौकरों को उसमें से भोजन मिला करता था।
अब सिंह शिकार करने में असमर्थ था। उनकी दुर्दशा देखकर सिंह बोला, “किसी ऐसे जीव की खोज करो कि जिसको मैं इस अवस्था में भी मारकर तुम लोगों के भोजन की व्यवस्था कर सकूं।” सिंह की आज्ञा पाकर वे चारों प्राणी हर तरफ शिकार की तलाश में घूमने निकले। जब कहीं कुछ नहीं मिला तो कौए और सियार ने परस्पर मिलकर सलाह की। श्रृगाल बोला, “मित्र कौवे! इधर-उधर भटकने से क्या लाभ? क्यों न इस कथनक को मारकर उसका ही भोजन किया जाए?”
सियार सिंह के पास गया और वहां पहुंचकर कहने लगा, “स्वामी! हम सबने मिलकर सारा वन छान मारा है, किन्तु कहीं कोई ऐसा पशु नहीं मिला कि जिसको हम आपके समीप मारने के लिए ला पाते। अब भूख इतनी सता रही है कि हमारे लिए एक भी पग चलना कठिन हो गया है। आप बीमार हैं। यदि आपकी आज्ञा हो तो आज कथनक के मांस से ही आपके खाने का प्रबंध किया जाए।” पर सिंह ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसने ऊंट को अपने यहां पनाह दी है इसलिए वह उसे मार नहीं सकता।
पर सियार ने सिंह को किसी तरह मना ही लिया। राजा की आज्ञा पाते ही श्रृगाल ने तत्काल अपने साथियों को बुलाया लाया। उसके साथ ऊंट भी आया। उन्हें देखकर सिंह ने पूछा, “तुम लोगों को कुछ मिला?”
कौवा, सियार, बाघ सहित दूसरे जानवरों ने बता दिया कि उन्हें कुछ नहीं मिला। पर अपने राजा की भूख मिटाने के लिए सभी बारी-बारी से सिंह के आगे आए और विनती की कि वह उन्हें मारकर खा लें। पर सियार हर किसी में कुछ न कुछ खामी बता देता ताकि सिंह उन्हें न मार सके।
अंत में ऊंट की बारी आई। बेचारे सीधे-साधे कथनक ऊंट ने जब यह देखा कि सभी सेवक अपनी जान देने की विनती कर रहे हैं तो वह भी पीछे नहीं रहा।
उसने सिंह को प्रणाम करके कहा, “स्वामी! ये सभी आपके लिए अभक्ष्य हैं। किसी का आकार छोटा है, किसी के तेज नाखून हैं, किसी की देह पर घने बाल हैं। आज तो आप मेरे ही शरीर से अपनी जीविका चलाइए जिससे कि मुझे दोनों लोकों की प्राप्ति हो सके।”
कथनक का इतना कहना था कि व्याघ्र और सियार उस पर झपट पड़े और देखते-ही-देखते उसके पेट को चीरकर रख दिया। बस फिर क्या था, भूख से पीड़ित सिंह और व्याघ्र आदि ने तुरन्त ही उसको चट कर डाला।
टिटिहरी का जोडा़ और समुद्र का अभिमान
समुद्रतट के एक भाग में एक टिटिहरी का जोडा़ रहता था । अंडे देने से पहले टिटिहरी ने अपने पति को किसी सुरक्षित प्रदेश की खोज करने के लिये कहा । टिटिहरे ने कहा - "यहां सभी स्थान पर्याप्त सुरक्षित हैं, तू चिन्ता न कर ।"
टिटिहरी - "समुद्र में जब ज्वार आता है तो उसकी लहरें मतवाले हाथी को भी खींच कर ले जाती हैं, इसलिये हमें इन लहरों से दूर कोई स्थान देख रखना चाहिये ।
टिटिहरा - "समुद्र इतना दुःसाहसी नहीं है कि वह मेरी सन्तान को हानि पहुँचाये । वह मुझ से डरता है । इसलिये तू निःशंक होकर यहीं तट पर अंडे दे दे ।"
समुद्र ने टिटिहरे की ये बातें सुनलीं । उसने सोचा - "यह टिटिहरा बहुत अभिमानी है । आकाश की ओर टांगें करके भी यह इसीलिये सोता है कि इन टांगों पर गिरते हुए आकाश को थाम लेगा । इसके अभिमान का भंग होना चाहिये ।" यह सोचकर उसने ज्वार आने पर टिटिहरी के अंडों को लहरों में बहा दिया ।
टिटिहरी जब दूसरे दिन आई तो अंडों को बहता देखकर रोती-बिलखति टिटिहरे से बोली - "मूर्ख ! मैंने पहिले ही कहा था कि समुद्र की लहरें इन्हें बहा ले जायंगी । किन्तु तूने अभिमानवश मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया । अपने प्रियजनों के कथन पर भी जो कान नहीं देता उसकी दुर्गति होती ही है।
इसके अतिरिक्त बुद्धिमानों में भी वही बुद्धिमान सफल होते हैं जो बिना आई विपत्ति का पहले से ही उपाय सोचते हैं, और जिनकी बुद्धि तत्काल अपनी रक्षा का उपाय सोच लेती है । ’जो होगा, देखा जायगा’ कहने वाले शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।"
यह बात सुनकर टिटिहरे ने टिटिहरी से कहा - मैं ’यद्भविष्य’ जैसा मूर्ख और निष्कर्म नहीं हूँ । मेरी बुद्धि का चमत्कार देखती जा, मैं अभी अपनी चोंच से पानी बाहिर निकाल कर समुद्र को सुखा देता हूँ ।"
टिटिहरी - "समुद्र के साथ तेरा वैर तुझे शोभा नहीं देता । इस पर क्रोध करने से क्या लाभ ? अपनी शक्ति देखकर हमे किसी से बैर करना चाहिये । नहीं तो आग में जलने वाले पतंगे जैसी गति होगी ।"
टिटिहरा फिर भी अपनी चोंचों से समुद्र को सुखा डालने की डीगें मारता रहा । तब, टिटिहरी ने फिर उसे मना करते हुए कहा कि जिस समुद्र को गंगा-यमुना जैसि सैंकड़ों नदियां निरन्तर पानी से भर रही हैं उसे तू अपने बूंद-भर उठाने वाली चोंचों से कैसे खाली कर देगा ?
टिटिहरा तब भी अपने हठ पर तुला रहा। तब, टिटिहरी ने कहा - "यदि तूने समुद्र को सुखाने का हठ ही कर लिया है तो अन्य पक्षियों की भी सलाह लेकर काम कर । कई बार छोटे २ प्राणी मिलकर अपने से बहुत बड़े जीव को भी हरा देते हैं; जैसे चिड़िया, कठफोड़े और मेंढक ने मिलकर हाथी को मार दिया था ।
टिटिहरा - "अच्छी बात है । मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुद्र को सुखाने का यत्न करुँगा ।"
यह कहकर उसने बगुले, सारस, मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुःख-कथा सुनाई । उन्होंने कहा - "हम तो अशक्त हैं, किन्तु हमारा मित्र गरुड़ अवश्य इस संबन्ध में हमारी सहायता कर सकता है ।’ तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पस जाकर रोने और चिल्लाने लगे - "गरुड़ महाराज ! आप के रहते हमारे पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया । हम इसका बदला चाहते हैं । आज उसने टिटिहरी के अंडे नष्ट किये हैं, कल वह दूसरे पक्षियों के अंडों को बहा ले जायगा । इस अत्याचार की रोक-थाम होनी चाहिये । अन्यथा संपूर्ण पक्षिकुल नष्ट हो जायगा ।"
गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया । उसी समय उसके पास भगवान् विष्णु का दूत आया । उस दूत द्वारा भगवान विष्णु ने उसे सवारी के लिये बुलाया था । गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि वह विष्णु भगवान को कह दे कि वह दूसरी सवारी का प्रबन्ध कर लें । दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई ।
दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गये । वहाँ पहुँचने पर गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा - "भगवन् ! आप के आश्रम का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अंडों का अपहरण कर लिया है । इस तरह मुझे भी अपमानित किया है । मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूँ ।"
भगवान विष्णु बोले - "गरुड़ ! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है । समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिये था । चलो,
मैं अभी समुद्र से उन अंडों को वापिस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता हूँ । उसके बाद हमें अमरावती जाना है ।"
तब भगवान ने अपने धनुष पर ’आग्नेय" बाण को चढ़ाकर समुद्र से कहा -"दुष्ट ! अभी उन सब अंडों को वापिस देदे, नहीं तो तुझे क्षण भर में सुखा दूंगा ।"
भगवान विष्णु के भय से समुद्र ने उसी क्षण अंडे वापिस दे दिये ।
मूर्ख बातूनी कछुआ
एक तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। उसी तलाब में दो हंस तैरने के लिए उतरते थे। हंस बहुत हंसमुख और मिलनसार थे। कछुए और उनमें दोस्ती होते देर न लगी। हंसो को कछुए का धीमे-धीमे चलना और उसका भोलापन बहुत अच्छा लगा। हंस बहुत ज्ञानी भी थे। वे कछुए को अदभुत बातें बताते। ॠषि-मुनियों की कहानियां सुनाते। हंस तो दूर-दूर तक घूमकर आते थे, इसलिए दूसरी जगहों की अनोखी बातें कछुए को बताते। कछुआ मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुनता। बाकी तो सब ठीक था, पर कछुए को बीच में टोका-टाकी करने की बहुत आदत थी। अपने सज्जन स्वभाव के कारण हंस उसकी इस आदत का बुरा नहीं मानते थे। उन तीनों की घनिष्टता बढती गई। दिन गुजरते गए।
एक बार बडे जोर का सुखा पडा। बरसात के मौसम में भी एक बूंद पानी नहीं बरसा। उस तालाब का पानी सूखने लगा। प्राणी मरने लगे, मछलियां तो तडप-तडपकर मर गईं। तालाब का पानी और तेजी से सूखने लगा। एक समय ऐसा भी आया कि तालाब में खाली कीचड रह गया। कछुआ बडे संकट में पड गया। जीवन-मरण का प्रश्न खडा हो गया। वहीं पडा रहता तो कछुए का अंत निश्चित था। हंस अपने मित्र पर आए संकट को दूर करने का उपाय सोचने लगे। वे अपने मित्र कछुए को ढाडस बंधाने का प्रयत्न करते और हिम्म्त न हारने की सलाह देते। हंस केवल झूठा दिलासा नहीं दे रहे थे। वे दूर-दूर तक उडकर समस्या का हल ढूढते। एक दिन लौटकर हंसो ने कहा “मित्र, यहां से पचास कोस दूर एक झील हैं।उसमें काफी पानी हैं तुम वहां मजे से रहोगे।” कछुआ रोनी आवाज में बोला “पचास कोस? इतनी दूर जाने में मुझे महीनों लगेंगे। तब तक तो मैं मर जाऊंगा।”
कछुए की बात भी ठीक थी। हंसो ने अक्ल लडाई और एक तरीका सोच निकाला।
वे एक लकडी उठाकर लाए और बोले “मित्र, हम दोनों अपनी चोंच में इस लकडी के सिरे पकडकर एक साथ उडेंगे। तुम इस लकडी को बीच में से मुंह से थामे रहना। इस प्रकार हम उस झील तक तुम्हें पहुंचा देंगे उसके बाद तुम्हें कोई चिन्ता नहीं रहेगी।”
उन्होंने चेतावनी दी “पर याद रखना, उड़ान के दौरान अपना मुंह न खोलना। वरना गिर पडोगे।”
कछुए ने हामी में सिर हिलाया। बस, लकडी पकडकर हंस उड चले। उनके बीच में लकडी मुंह दाबे कछुआ। वे एक कस्बे के ऊपर से उड रहे थे कि नीचे खडे लोगों ने आकाश में अदभुत नजारा देखा। सब एक दूसरे को ऊपर आकाश का दॄश्य दिखाने लगे। लोग दौड-दौडकर अपने छज्जों पर निकल आए। कुछ अपने मकानों की छतों की ओर दौडे। बच्चे बूडे, औरतें व जवान सब ऊपर देखने लगे। खूब शोर मचा। कछुए की नजर नीचे उन लोगों पर पडी।
उसे आश्चर्य हुआ कि उन्हें इतने लोग देख रहे हैं। वह अपने मित्रों की चेतावनी भूल गया और चिल्लाया “देखो, कितने लोग हमें देख रहे है!” मुंह के खुलते ही वह नीचे गिर पडा। नीचे उसकी हड्डी-पसली का भी पता नहीं लगा।
तीन मछलियां
एक नदी के किनारे उसी नदी से जुडा एक बडा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता हैं, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी नदी से बहुत-सी मछलियां आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय लम्बी घास व झाडियों द्वारा घिरा होने के कारण आसानी से नजर नहीं आता था।
उसी मे तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। अन्ना संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। प्रत्यु कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। यद्दी का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा।
एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकडकर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिकाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके ।
एक ने अनुमान लगाया “दोस्तो! लगता हैं झाडियों के पीछे नदी से जुडा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं।”
मछुआरे पुलकित होकर झाडियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे।
एक मछुआरा बोला “अहा! इस जलाशय में तो मछलियां भरी पडी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा।” “यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी।” दूसरा बोला।
तीसरे ने कहा “आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंगे।”
इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछ्लियों ने मछुआरे की बात सुन ला थी।
अन्ना मछली ने कहा “साथियो! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई हैं। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अटखेलियां कर रही हो-ऊंगी।’
प्रत्यु मछली बोली “तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत हैं हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है। उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता हैं या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती हैं और बाढ में उनका गांव बह सकता हैं। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं हैं। जब वह आएंगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता हैं मैं उनके जाल में ही न फंसूं।”
यद्दी ने अपनी भाग्यवादी बात कही “भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना हैं तो वह आएंगे। हमें जाल में फंसना हैं तो हम फंसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा हैं तो क्या किया जा सकता हैं?”
इस प्रकार अन्ना तो उसी समय वहां से चली गई। प्रत्यु और यद्दी जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकडने । प्रत्यु ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने । उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस-पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम आ सकती हैं।
जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सडने लगी थी। प्रत्यु लाश के पेट में घुस गई और सडती लाश की सडांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में प्रत्यु फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तडपने लगीं, परन्तु प्रत्यु दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पडी रही। मचुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निश्चल पडी प्रत्यु को उठाया और सूंघा “आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड चुकी हैं।” ऐसे बडबडाकर बुरा-सा मुंह बनाकर उस मछुआरे ने प्रत्यु को जलाशय में फेंक दिया।
प्रत्यु अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई।
यद्दी भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली यद्दी ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तडप-तडपकर प्राण त्याग दिए।
गौरैया और हाथी
किसी पेड़ पर एक गौरैया अपने पति के साथ रहती
थी। वह अपने घोंसले में अंडों से चूजों के निकलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी।
एक दिन की बात है गौरैया अपने अंडों को से रही थी और उसका पति भी रोज की तरह खाने के इन्तेजाम के लिए बाहर गया हुआ था।
तभी वहां एक गुस्सैल हाथी आया और आस-पास के पेड़ पौधों को रौंदते हुए तोड़-फोड़ करने लगा। उसी तोड़ फोड़ के दौरान वह गौरैया के पेड़ तक भी पहुंचा और उसने पेड़ को गिराने के लिए उसे जोर-जोर से हिलाया, पेड़ को काफी मजबूत था इसलिए हाथी पेड़ को तो नहीं तोड़ पाया और वहां से चला गया, लेकिन उसके हिलाने से गौरैया का घोसला टूटकर नीचे आ गिरा और उसके सारे अंडे फूट गए।
गौरैया बहुत दुखी हुयी और जोर जोर से रोने लगी, तभी उसका पति भी वापस आ गया, वह भी बेचारा बहुत दुखी हुआ और उन्होंने हाथी से बदला लेने और उसे सबक सिखाने का फैसला किया।
वे अपने एक मित्र; जो कि एक कठफोड़वा था; के पास पहुंचे और उसे सारी बात बताई। वे हाथी से बदला लेने के लिए कठफोड़वा की मदद चाहते थे। उस कठफोड़वा के दो अन्य दोस्त थे; एक मधुमक्खी और एक मेंढक। उन्होंने मिलकर हाथी से बदला लेने की योजना बनाई।
तय योजना के तहत सबसे पहले मधुमक्खी ने काम शुरू किया। उसने हाथी के कान में गाना गुनगुनाना शुरू किया। हाथी को उस संगीत में मजा आने और जब हाथी संगीत में डूबा हुआ था, तो कठफोड़वा ने अगले चरण पर काम करना शुरू कर दिया। उसने हाथी की दोनों आँखें फोड़ दी। हाथी दर्द से कराहने लगा।
उसके बाद मेंढक अपनी पलटन के साथ एक दलदल के पास गया और सब मिलकर टर्राने लगे। मेंढकों का टर्राना सुनकर हाथी को लगा कि पास में ही कोई तालाब है। वह उस आवाज की दिशा में गया और दलदल में फंस गया। इस तरह से हाथी धीरे-धीरे दलदल में फंस गया और मर गया।
सिंह और सियार
वर्षों पहले हिमालय की किसी कन्दरा में एक बलिष्ठ शेर रहा करता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार और भक्षण कर अपनी गुफा को लौट रहा था। तभी रास्ते में उसे एक मरियल-सा सियार मिला जिसने उसे लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया।
जब शेर ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने कहा, “सरकार मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ। कुपया मुझे आप अपनी शरण में ले लें। मैं आपकी सेवा करुँगा और आपके द्वारा छोड़े गये शिकार से अपना गुजर-बसर कर लूंगा।' शेर ने उसकी बात मान ली और उसे मित्रवत अपनी शरण में रखा।
कुछ ही दिनों में शेर द्वारा छोड़े गये शिकार को खा-खा कर वह सियार बहुत मोटा हो गया।
प्रतिदिन सिंह के पराक्रम को देख-देख उसने भी स्वयं को सिंह का प्रतिरुप मान लिया। एक दिन उसने सिंह से कहा, 'अरे सिंह ! मैं भी अब तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करुंगा और उसका भक्षण करुंगा और उसके बचे-खुचे माँस को तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा।'
चूँकि सिंह उस सियार को मित्रवत् देखता था, इसलिए उसने उसकी बातों का बुरा न मान उसे ऐसा करने से रोका।
भ्रम-जाल में फँसा वह दम्भी सियार सिंह के परामर्श को अस्वीकार करता हुआ पहाड़ की चोटी पर जा खड़ा हुआ। वहाँ से उसने चारों ओर नज़रें दौड़ाई तो पहाड़ के नीचे हाथियों के एक छोटे से समूह को देखा। फिर सिंह-नाद की तरह तीन बार सियार की आवाजें लगा कर एक बड़े हाथी के ऊपर कूद पड़ा। किन्तु हाथी के सिर के ऊपर न गिर वह उसके पैरों पर जा गिरा। और हाथी अपनी मस्तानी चाल से अपना अगला पैर उसके सिर के ऊपर रख आगे बढ़ गया। क्षण भर में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गये।
पहाड़ के ऊपर से सियार की सारी हरकतें देखता हुआ सिंह ने तब यह गाथा कही – 'होते है जो मूर्ख और घमण्डी, होती है उनकी ऐसी ही गति।'
चिड़िया और बन्दर
एक जंगल में एक पेड पर गौरैया का घोंसला था। एक दिन कडाके की ठंड पड रही थी। ठंड से कांपते हुए तीन चार बंदरो ने उसी पेड के नीचे आश्रय लिया। एक बंदर बोला “कहीं से आग तापने को मिले तो ठंड दूर हो सकती हैं।”
दूसरे बंदर ने सुझाया “देखो, यहां कितनी सूखी पत्तियां गिरी पडी हैं। इन्हें इकट्ठा कर हम ढेर लगाते हैं और फिर उसे सुलगाने का उपाय सोचते हैं।”
बंदरों ने सूखी पत्तियों का ढेर बनाया और फिर गोल दायरे में बैठकर सोचने लगे कि ढेर को कैसे सुलगाया जाए। तभी एक बंदर की नजर दूर हवा में उडते एक जुगनू पर पडी और वह उछल पडा। उधर ही दौडता हुआ चिल्लाने लगा “देखो, हवा में चिंगारी उड रही हैं। इसे पकडकर ढेर के नीचे रखकर फूंक मारने से आग सुलग जाएगी।”
“हां हां!” कहते हुए बाकी बंदर भी उधर दौडने लगे। पेड पर अपने घोंसले में बैठी गौरैया यह सब देख रही थे। उससे चुप नहीं रहा गया। वह बोली ” बंदर भाइयो, यह चिंगारी नहीं हैं यह तो जुगनू हैं।”
एक बंदर क्रोध से गौरैया की देखकर गुर्राया “मूर्ख चिडिया, चुपचाप घोंसले में दुबकी रह।हमें सिखाने चली हैं।”
इस बीच एक बंदर उछलकर जुगनू को अपनी हथेलियों के बीच कटोरा बनाकर कैद करने में सफल हो गया। जुगनू को ढेर के नीचे रख दिया गया और सारे बंदर लगे चारों ओर से ढेर में फूंक मारने।
गौरैया ने सलाह दी “भाइयो! आप लोग गलती कर रहें हैं। जुगनू से आग नहीं सुलगेगी। दो पत्थरों को टकराकर उससे चिंगारी पैदा करके आग सुलगाइए।”
बंदरों ने गौरैया को घूरा। आग नहीं सुलगी तो गौरैया फिर बोल उठी “भाइयो! आप मेरी सलाह मानिए, कम से कम दो सूखी लकडियों को आपस में रगडकर देखिए।”
सारे बंदर आग न सुलगा पाने के कारण खीजे हुए थे। एक बंदर क्रोध से भरकर आगे बढा और उसने गौरैया पकडकर जोर से पेड के तने पर मारा। गौरैया फडफडाती हुई नीचे गिरी और मर गई।
गौरैया और बन्दर
किसी जंगल के एक घने वृक्ष की शाखाओं पर चिड़ा-चिडी़ का एक जोड़ा रहता था । अपने घोंसले में दोनों बड़े सुख से रहते थे ।
सर्दियों का मौसम था । एक दिन हेमन्त की ठंडी हवा चलने लगी और साथ में बूंदा-बांदी भी शुरु हो गई । उस समय एक बन्दर बर्फीली हवा और बरसात से ठिठुरता हुआ उस वृक्ष की शाखा पर आ बैठा।
जाड़े के मारे उसके दांत कटकटा रहे थे । उसे देखकर चिड़िया ने कहा----"अरे ! तुम कौन हो ? देखने में तो तुम्हारा चेहरा आदमियों का सा है; हाथ-पैर भी हैं तुम्हारे । फिर भी तुम यहाँ बैठे हो, घर बनाकर क्यों नहीं रहते ?"
बन्दर बोला ----"अरी ! तुम से चुप नहीं रहा जाता ? तू अपना काम कर । मेरा उपहास क्यों करती है ?"
चिड़िया फिर भी कुछ कहती गई । वह चिड़ गया । क्रोध में आकर उसने चिड़िया के उस घोंसले को तोड़-फोड़ डाला जिसमें चिड़ा-चिड़ी सुख से रहते थे ।
मित्र-द्रोह का फल
दो मित्र धर्मबुद्धि और पापबुद्धि हिम्मत नगर में रहते थे। एक बार पापबुद्धि के मन में एक विचार आया कि क्यों न मैं मित्र धर्मबुद्धि के साथ दूसरे देश जाकर धनोपार्जन कर्रूँ। बाद में किसी न किसी युक्ति से उसका सारा धन ठग-हड़प कर सुख-चैन से पूरी जिंदगी जीऊँगा। इसी नियति से पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि को धन और ज्ञान प्राप्त होने का लोभ देते हुए अपने साथ बाहर जाने के लिए राजी कर लिया।
शुभ-मुहूर्त देखकर दोनों मित्र एक अन्य शहर के लिए रवाना हुए। जाते समय अपने साथ बहुत सा माल लेकर गये तथा मुँह माँगे दामों पर बेचकर खूब धनोपार्जन किया। अंततः प्रसन्न मन से गाँव की तरफ लौट गये।
गाँव के निकट पहुँचने पर पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि को कहा कि मेरे विचार से गाँव में एक साथ सारा धन ले जाना उचित नहीं है। कुछ लोगों को हमसे ईष्या होने लगेगी, तो कुछ लोग कर्ज के रुप में पैसा माँगने लगेंगे। संभव है कि कोई चोर ही इसे चुरा ले। मेरे विचार से कुछ धन हमें जंगल में ही किसी सुरक्षित स्थान पर गाढ़ देनी चाहिए। अन्यथा सारा धन देखकर सन्यासी व महात्माओं का मन भी डोल जाता है।
सीधे-साधे धर्मबुद्धि ने पुनः पापबुद्धि के विचार में अपनी सहमति जताई।वहीं किसी सुरक्षित स्थान पर दोनों ने गड्ढ़े खोदकर अपना धन दबा दिया तथा घर की ओर प्रस्थान कर गये। बाद में मौका देखकर एक रात कुबुद्धि ने वहाँ गड़े सारे धन को चुपके से निकालकर हथिया लिया।कुछ दिनों के बाद धर्मबुद्धि ने पापबुद्धि से कहा: भाई मुझे कुछ धन की आवश्यकता है। अतः आप मेरे साथ चलिए। पापबुद्धि तैयार हो गया।जब उसने धन निकालने के लिए गड्ढ़े को खोदा,
तो वहाँ कुछ भी नहीं मिला। पापबुद्धि ने तुरंत रोने-चिल्लाने का अभिनय किया। उसने धर्मबुद्धि पर धन निकाल लेने का इल्जाम लगा दिया। दोनों लड़ने-झगड़ते न्यायाधीश के पास पहुँचे।
न्यायाधीश के सम्मुख दोनों ने अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत किया। न्यायाधीश ने सत्य का पता लगाने के लिए दिव्य-परीक्षा का आदेश दिया। दोनों को बारी-बारी से अपने हाथ जलती हुई आग में डालने थे। पापबुद्धि ने इसका विरोध किया उसने कहा कि वन देवता गवाही देेंगे। न्यायधीश ने यह मान लिया। पापबुद्धि ने अपने बाप को एक सूखे हुए पेड़ के खोखले में बैठा दिया। न्यायधीश ने पूछा तो आवाज आई कि चोरी धर्मबुद्धि ने की है।
तभी धर्मबुद्धि ने पेड़ के नीचे आग लगा दी। पेड़ जलने लगा और उसके साथ ही पापबुद्धि का बाप भी, वो बुरी तरह रोने-चिल्लाने लगा। थोड़ी देर में पापबुद्धि का पिता आग से झुलसा हुआ उस वृक्ष की जड़ में से निकला। उसने वनदेवता की साक्षी का सच्चा भेद प्रकट कर दिया। न्यायाधीश ने पापबुद्धि को मौत की सजा दी और धर्मबुद्धि को उसका पूरा धन दिलवाया और कहा कि मनुष्य का यह धर्म है कि वह उपाय की चिन्ता के साथ अपाय की भी चिन्ता करे।
मूर्ख बगुला और नेवला
जंगल के एक बड़े वट-वृक्ष की खोल में बहुत से बगुले रहते थे । उसी वृक्ष की जड़ में एक साँप भी रहता था । वह बगलों के छोटे-छोटे बच्चों को खा जाता था ।
एक बगुला साँप द्वार बार-बार बच्चों के खाये जाने पर बहुत दुःखी और विरक्त सा होकर नदी के किनारे आ बैठा ।
उसकी आँखों में आँसू भरे हुए थे । उसे इस प्रकार दुःखमग्न देखकर एक केकड़े ने पानी से निकल कर उसे कहा :-"मामा ! क्या बात है, आज रो क्यों रहे हो ?"
बगुले ने कहा - "भैया ! बात यह है कि मेरे बच्चों को साँप बार-बार खा जाता है । कुछ उपाय नहीं सूझता, किस प्रकार साँप का नाश किया जाय । तुम्हीं कोई उपाय बताओ ।"
केकड़े ने मन में सोचा, ’यह बगला मेरा जन्मवैरी है, इसे ऐसा उपाय बताऊंगा, जिससे साँप के नाश के साथ-साथ इसका भी नाश हो जाय ।’ यह सोचकर वह बोला -
"मामा ! एक काम करो, मांस के कुछ टुकडे़ लेकर नेवले के बिल के सामने डाल दो । इसके बाद बहुत से टुकड़े उस बिल से शुरु करके साँप के बिल तक बखेर दो । नेवला उन टुकड़ों को खाता-खाता साँप के बिल तक आ जायगा और वहाँ साँप को भी देखकर उसे मार डालेगा ।"
बगुले ने ऐसा ही किया । नेवले ने साँप को तो खा लिया किन्तु साँप के बाद उस वृक्ष पर रहने वाले बगुलों को भी खा डाला ।
बगुले ने उपाय तो सोचा, किन्तु उसके अन्य दुष्परिणाम नहीं सोचे । अपनी मूर्खता का फल उसे मिल गया ।
जैसे को तैसा
एक स्थान पर जीर्णधन नाम का बनिये का लड़का रहता था । धन की खोज में उसने परदेश जाने का विचार किया । उसके घर में विशेष सम्पत्ति तो थी नहीं, केवल एक मन भर भारी लोहे की तराजू थी । उसे एक महाजन के पास धरोहर रखकर वह विदेश चला गया । विदेश स वापिस आने के बाद उसने महाजन से अपनी धरोहर वापिस मांगी । महाजन ने कहा----"वह लोहे की तराजू तो चूहों ने खा ली ।"
बनिये का लड़का समझ गया कि वह उस तराजू को देना नहीं चाहता । किन्तु अब उपाय कोई नहीं था । कुछ देर सोचकर उसने कहा---"कोई चिन्ता नहीं । चुहों ने खा डाली तो चूहों का दोष है, तुम्हारा नहीं । तुम इसकी चिन्ता न करो ।"
थोड़ी देर बाद उसने महाजन से कहा----"मित्र ! मैं नदी पर स्नान के लिए जा रहा हूँ । तुम अपने पुत्र धनदेव को मेरे साथ भेज दो, वह भी नहा आयेगा ।"
महाजन बनिये की सज्जनता से बहुत प्रभावित था, इसलिए उसने तत्काल अपने पुत्र को उनके साथ नदी-स्नान के लिए भेज दिया ।
बनिये ने महाजन के पुत्र को वहाँ से कुछ दूर ले जाकर एक गुफा में बन्द कर दिया । गुफा के द्वार पर बड़ी सी शिला रख दी, जिससे वह बचकर भाग न पाये । उसे वहाँ बंद करके जब वह महाजन के घर आया तो महाजन ने पूछा---"मेरा लड़का भी तो तेरे साथ स्नान के लिए गया था, वह कहाँ है ?"
बनिये ने कहा ----"उसे चील उठा कर ले गई है ।"
महाजन ---"यह कैसे हो सकता है ? कभी चील भी इतने बड़े बच्चे को उठा कर ले जा सकती है ?"
बनिया---"भले आदमी ! यदि चील बच्चे को उठाकर नहीं ले जा सकती तो चूहे भी मन भर भारी तराजू को नहीं खा सकते । तुझे बच्चा चाहिए तो तराजू निकाल कर दे दे ।"
इसी तरह विवाद करते हुए दोनों राजमहल में पहुँचे । वहाँ न्यायाधिकारी के सामने महाजन ने अपनी दुःख-कथा सुनाते हुए कहा कि, "इस बनिये ने मेरा लड़का चुरा लिया है ।"
धर्माधिकारी ने बनिये से कहा ---"इसका लड़का इसे दे दो ।
बनिया बोल----"महाराज ! उसे तो चील उठा ले गई है ।"
धर्माधिकारी ----"क्या कभी चील भी बच्चे को उठा ले जा सकती है ?"
बनिया ----"प्रभु ! यदि मन भर भारी तराजू को चूहे खा सकते हैं तो चील भी बच्चे को उठाकर ले जा सकती है ।"
धर्माधिकारी के प्रश्न पर बनिये ने अपनी तराजू का सब वृत्तान्त कह सुनाया ।
मूर्ख मित्र
किसी राजा के राजमहल में एक बन्दर सेवक के रुप में रहता था । वह राजा का बहुत विश्वास-पात्र और भक्त था । अन्तःपुर में भी वह बेरोक-टोक जा सकता था ।
एक दिन जब राजा सो रहा था और बन्दर पङखा झल रहा था तो बन्दर ने देखा, एक मक्खी बार-बार राजा की छाती पर बैठ जाती थी । पंखे से बार-बार हटाने पर भी वह मानती नहीं थी, उड़कर फिर वहीं बैठी जाती थी ।
बन्दर को क्रोध आ गया । उसने पंखा छोड़ कर हाथ में तलवार ले ली; और इस बार जब मक्खी राजा की छाती पर बैठी तो उसने पूरे बल से मक्खी पर तलवार का हाथ छोड़ दिया । मक्खी तो उड़ गई, किन्तु राजा की छाती तलवार की चोट से दो टुकडे़ हो गई । राजा मर गया ।
साधु और चूहा
महिलरोपयम नामक एक दक्षिणी शहर के पास भगवान शिव का एक मंदिर था। वहां एक पवित्र ऋषि रहते थे और मंदिर की देखभाल करते थे। वे भिक्षा के लिए शहर में हर रोज जाते थे,
और भोजन के लिए शाम को वापस आते थे। वे अपनी आवश्यकता से अधिक एकत्र कर लेते थे और बाकि का बर्तन में डाल कर गरीब मजदूरों में बाँट देते थे जो बदले में मंदिर की सफाई करते थे और उसे सजावट का काम किया करते थे।
उसी आश्रम में एक चूहा भी अपने बिल में रहता था और हर रोज कटोरे में से कुछ न कुछ भोजन चुरा लेता था।
जब साधु को एहसास हुआ कि एक चूहा भोजन चोरी करता है तो उन्होंने इसे रोकने के लिए सभी तरह की कोशिशें की। उन्होंने कटोरे को काफी उचाई पर रखा ताकि चूहा वहां तक पहुँच न सके,
और यहां तक कि एक छड़ी के साथ चूहे को मार भगाने की भी कोशिश की, लेकिन चूहा किसी भी तरह कटोरे तक पहुंचने का रास्ता ढूंढ लेता और कुछ भोजन चुरा लेता था।
एक दिन, एक भिक्षुक मंदिर की यात्रा करने के लिए आये थे। लेकिन साधु का ध्यान तो चूहे को डंडे से मारने में था और वे भिक्षुक से मिल भी नहीं पाए,
इसे अपना अपमान समझ भिक्षुक क्रोधित होकर बोले
“आपके आश्रम में
फिर कभी नहीं आऊंगा क्योंकि लगता है मुझसे बात करने के अलावा आपको अन्य काम ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा है।”
साधु विनम्रतापूर्वक चूहे से जुडी अपनी परेशानियों के बारे में भिक्षुक को बताते हैं,
कि कैसे चूहा उनके पास से भोजन किसी न किसी तरह से चुरा ही लेता है,
“यह चूहा किसी भी बिल्ली या बन्दर को हरा सकता है अगर बात मेरे कटोरे तक पहुंचने कि हो तो! मैंने हर कोशिशें की हैं लेकिन वो हर बार किसी न किसी तरीके से भोजन चुरा ही लेता है।
भिक्षुक ने साधु की परेशानियों को समझा,
और सलाह दी,
“चूहे में इतनी शक्ति,
आत्मविश्वास और चंचलता के पीछे अवश्य ही कुछ न कुछ कारण होगा"।
मुझे यकीन है कि इसने बहुत सारा भोजन जमा कर रखा होगा और यही कारण है कि चूहा अपने आप को बड़ा महसूस करता है और इसी से उसे ऊँचा कूदने कि शक्ति मिलती है। चूहा जानता है कि उसके पास कुछ खोने के लिए नहीं है इसलिए वो डरता नहीं है।”
इस प्रकार, साधू और भिक्षुक निष्कर्ष निकालते है कि अगर वे चूहे के बिल तक पहुंचने में सफल होते है तो वे चूहे के भोजन के भंडार तक पहुंचने में सक्षम हो जाएंगे। उन्होंने फैसला किया कि अगली सुबह वो चूहे का पीछा करेंगे और उसके बिल तक पहुंच जाएंगे।
अगली सुबह वो चूहे का पीछा करते हैं और उसके बिल के प्रवेश द्वार तक पहुंच जाते है। जब वो खुदाई शुरू करते है तो देखते हैं की चूहे ने अनाज का एक विशाल भंडार बना रखा है,
फ़ौरन ही साधु ने सारा चुराया गया भोजन एकत्र करके मंदिर में लिवा ले जाते है।
वापस आने पर अपना सारा अनाज गायब देख चूहा बहुत दुखी हुआ और उसे इस बात से गहरा झटका लगा और उसने सारा आत्मविश्वास खो दिया।
अब चूहे के पास भोजन का भंडार नहीं था, फिर भी उसने फैसला किया कि वो फिर से रात को कटोरे से भोजन चुराएगा। लेकिन जब उसने कटोरे तक पहुँचने की कोशिश की, तब वह धड़ाम से नीच गिर गया और उसे यह एहसास हुआ कि अब न तो उसके पर शक्ति है, और न ही आत्मविश्वास।
उसी समय साधु ने भी छड़ी से उसपर हमला किया। किसी तरह चूहे ने अपनी जान बचायी और भागने में कामियाब रहा और फिर वापस मंदिर कभी नहीं आया।
गजराज और मूषकराज की कथा
प्राचीन काल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया।
लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे। चूहो का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर जमीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पडा और वह एक बडा जलाशय बन गया। नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पडा। जीव-जन्तु पानी की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। भारी भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई।
हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोडने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय हैं। गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकडों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पडे। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पडा।
हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सडकें चूहों के खून-मांस के कीचड से लथपथ हो गई। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे।
काफी सोचने-विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा “महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी हैं।”
मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड के नीचे गजराज खडा था।
मूषकराज उसके सामने के बडे पत्थर के ऊपर चढा और गजराज को नमस्कार करके बोला
“गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।”
आवाज गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढे मूषकराज के निकट ले जाकर बोला “नन्हें मियां, आप कुछ कह रहे थे। कॄपया फिर से कहिए।”
मूषकराज बोला “हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बडी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगरी के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।”
गजराज ने दुख भरे स्वर में कहा “मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूढ लेंगे।”
मूषकराज कॄतज्ञता भरे स्वर में बोला “गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरुरत पडे तो याद जरुर कीजिएगा।”
गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो उसने केवल मुस्कुराकर मूषकराज को विदा किया। कुछ दिन बाद पडौसी देश के राजा ने सेना को मजबूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकडने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते हैं। सैकडों हाथी पकड लिए गए। एक रात हाथियों के पकडे जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता हैं। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड के मोटे तने से मजबूती से बंधा था। गजराज चिंघाडने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया।कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा? एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जाअन बचाई थी। चिंघाड सुनकर वह दौडा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा।
वह चीखा “यह कैसा अन्याय हैं? गजराज, बताइए क्या करुं? मैं आपको छुडाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।”
गजराज बोले “बेटा, तुम बस दौडकर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराजा को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी हैं।
भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौडा-दौडा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस-तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आजाद हो गए।
ब्राह्मणी और तिल के बीज
एक बार की बात है एक निर्धन ब्राह्मण परिवार रहता था, एक समय उनके यहाँ कुछ अतिथि आये, घर में खाने पीने का सारा सामान ख़त्म हो चुका था, इसी बात को लेकर ब्राह्मण और ब्राह्मण-पत्नी में यह बातचीत हो रही थी:
ब्राह्मण----"कल सुबह कर्क-संक्रान्ति है, भिक्षा के लिये मैं दूसरे गाँव जाऊँगा । वहाँ एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है ।"
पत्नी---"तुझे तो भोजन योग्य अन्न कमाना भी नहीं आता । तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं भोगा,
मिष्टान्न नहीं खाये,
वस्त्र और आभूषणों को तो बात ही क्या कहनी ?"
ब्राह्मण----"देवी ! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए । अपनी इच्छा के अनुरुप धन किसी को नहीं मिलता । पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हूँ । इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर दो । अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है ।"
ब्राह्मणी ने पूछा----"यह कैसे ?"
तब ब्राह्मण ने सूअर---शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई----
एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया । जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया । उसे देखकर उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींचकर निशाना मारा । निशाना ठीक स्थान पर लगा । सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा । शिकारी भी तीखे दाँतों वाले सूअर के हमले से गिरकर घायल होगया । उसका पेट फट गया । शिकारी और शिकार दोनों का अन्त हो गया ।
इस बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहाँ आ निकला । वहाँ सूअर और शिकारी, दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा, "आज दैववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है । कई बार बिना विशेष उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है । इसे पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए ।"
यह सोचकर वह मृत लाशों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा । उसे याद आगया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिये; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है । इस तरह अल्प से अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है । अतः इनका भोग मैं इस रीतिसे करुँगा कि बहुत दिन तक इनके उपभोग से ही मेरी प्राणयात्रा चलती रहे ।
यह सोचकर उसने निश्चय किया कि वह पहले धनुष की डोरी को खायगा । उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बँधी हुई थी । गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया । चबाते ही वह डोरी बहुत वेग से टूट गई; और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकला आया, मानो माथे पर शिखा निकल आई हो । इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया ।
ब्राह्मण ने कहा---"इसीलिये मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है ।"
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा----"यदि यही बात है तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं । उनका शोधन करके कूट छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ ।"
ब्राह्मण उसकी बात से सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिये दूसरे गाँव की ओर चल दिया । ब्राह्मणी ने भी अपने वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरु कर दिया । छाँट-पछोड़ कर जब उसने तिलों को सुखाने के लिये धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र-विष्ठा से खराब कर दिया । ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई । यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसने अतिथि को भोजन देना था । बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेगी तो कोई भी दे देगा । इनके उच्छिष्ट होने का किसी को पता ही नहीं लगेगा । यह सोचकर वह उन तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी----"कोई इन छँटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छँटे तिल देदे ।"
अचानक यह हुआ कि ब्राह्मणी तिलों को बेचने एक घर में पहुँच गई, और कहने लगी कि---"बिना छँटे हुए तिलों के स्थान पर छँटे हुए तिलों को ले लो ।" उस घर की गृहपत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा:
"माता ! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छँटे तिलों को लेकर छँटे हुए तिल देगा । यह बात निष्कारण नहीं हो सकती । अवश्यमेव इन छँटे तिलों में कोई दोष होगा ।"
पुत्र के कहने से माता ने यह सौदा नहीं किया ।
व्यापारी के पुत्र की कहानी
किसी नगर में एक व्यापारी का पुत्र रहता था। दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति समाप्त हो गई। इसलिए उसने सोचा कि किसी दूसरे देश में जाकर व्यापार किया जाए। उसके पास एक भारी और मूल्यवान तराजू था। उसका वजन बीस किलो था। उसने अपने तराजू को एक सेठ के पास धरोहर रख दिया और व्यापार करने दूसरे देश चला गया।
कई देशों में घूमकर उसने व्यापार किया और खूब धन कमाकर वह घर वापस लौटा। एक दिन उसने सेठ से अपना तराजू माँगा। सेठ बेईमानी पर उतर गया। वह बोला,
‘भाई तुम्हारे तराजू को तो चूहे खा गए।’ व्यापारी पुत्र ने मन-ही-मन कुछ सोचा और सेठ से बोला-
‘सेठ जी, जब चूहे तराजू को खा गए तो आप कर भी क्या कर सकते हैं! मैं नदी में स्नान करने जा रहा हूँ। यदि आप अपने पुत्र को मेरे साथ नदी तक भेज दें तो बड़ी कृपा होगी।’
सेठ मन-ही-मन भयभीत था कि व्यापारी का पुत्र उस पर चोरी का आरोप न लगा दे। उसने आसानी से बात बनते न देखी तो अपने पुत्र को उसके साथ भेज दिया।स्नान करने के बाद व्यापारी के पुत्र ने लड़के को एक गुफ़ा में छिपा दिया। उसने गुफा का द्वार चट्टान से बंद कर दिया और अकेला ही सेठ के पास लौट आया।
सेठ ने पूछा, ‘मेरा बेटा कहाँ रह गया?’ इस पर व्यापारी के पुत्र ने उत्तर दिया,
‘जब हम नदी किनारे बैठे थे तो एक बड़ा सा बाज आया और झपट्टा मारकर आपके पुत्र को उठाकर ले गया।’ सेठ क्रोध से भर गया।
उसने शोर मचाते हुए कहा-‘तुम झूठे और मक्कार हो। कोई बाज इतने बड़े लड़के को उठाकर कैसे ले जा सकता है? तुम मेरे पुत्र को वापस ले आओ नहीं तो मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करुँगा’
व्यापारी पुत्र ने कहा, ‘आप ठीक कहते हैं।’ दोनों न्याय पाने के लिए राजदरबार में पहुँचे।
सेठ ने व्यापारी के पुत्र पर अपने पुत्र के अपहरण का आरोप लगाया। न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम सेठ के बेटे को वापस कर दो।’
इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा कि ‘मैं नदी के तट पर बैठा हुआ था कि एक बड़ा-सा बाज झपटा और सेठ के लड़के को पंजों में दबाकर उड़ गया। मैं उसे कहाँ से वापस कर दूँ?’
न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम झूठ बोलते हो। एक बाज पक्षी इतने बड़े लड़के को कैसे उठाकर ले जा सकता है?’
इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा, ‘यदि बीस किलो भार की मेरी लोहे की तराजू को साधारण चूहे खाकर पचा सकते हैं तो बाज पक्षी भी सेठ के लड़के को उठाकर ले जा सकता है।’
न्यायाधीश ने सेठ से पूछा, ‘यह सब क्या मामला है?’
अंततः सेठ ने स्वयं सारी बात राजदरबार में उगल दी। न्यायाधीश ने व्यापारी के पुत्र को उसका तराजू दिलवा दिया और सेठ का पुत्र उसे वापस मिल गया।
अभागा बुनकर
एक नगर में सोमिलक नाम का जुलाहा रहता था । विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था । अन्य जुलाहे मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गये थे । उन्हें देखकर एक दिन सोमलिक ने अपनी पत्नी से कहा---"प्रिये ! देखो, मामूली कपड़ा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है और मैं इतन सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ । प्रतीत होता है यह स्थान मेरे लिये भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर धनोपार्जन करुँगा ।"
सोमिलक-पत्नी ने कहा---"प्रियतम ! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं । धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है । न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है । अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जायगी ।"
सोमिलक---"भाग्य-अभाग्य की बातें तो कायर लोग करते हैं । लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी शेर-नर को ही प्राप्त होती है । शेर को भी अपने भोजन के लिये उद्यम करना पड़ता है । मैं भी उद्यम करुँगा; विदेश जाकर धन-संचय का यत्न करुँगा ।"
यह कहकर सोमिलक वर्धमानपुर चला गया । वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से ३०० सोने की मुहरें लेकर वह घर की ओर चल दिया । रास्ता लम्बा था । आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई । आस-पास कोई घर नहीं था । एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई । सोते-सोते स्वप्न आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं । एक ने कहा ----"हे पौरुष ! तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने इसे ३०० मुहरें क्यों दीं ?" दूसरा बोला----"हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूंगा ही । उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है ।"
स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा कि मुहरों का पात्र खाली था । इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ, और सोचने लगा---"अपनी पत्नी को कौनसा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे ?" यह सोचकर वह फिर वर्धमानपुर को ही वापिस आ गया । वहाँ दित-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा करलीं । उन्हें लेकर वह घर की ओर जा रहा था कि फिर आधे रास्ते में रात पड़ गई । इस बार वह सोने के लिये ठहरा नहीं; चलता ही गया । किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर उन दोनों---पौरुष और भाग्य---को पहले की तरह बात-चीत करते सुना । भाग्य ने फिर वही बात कही कि----"हे पौरुष ! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता । तब, उसे तूने ५०० मुहरें क्यों दीं ?" पौरुष ने वही
उत्तर दिया ----"हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूंगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है कि उसके पास रहने दे या छीन ले ।" इस बात-चीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी ।
इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ । उसने सोचा----"इस धन-हीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है । आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ ।"
गले में फन्दा लगा, उसे टहनी से बाँध कर जब वह लटकने ही वाला था कि उसे आकाश-वाणी हुई---"सौमिलक ! ऐसा दुःसाहस मत कर । मैंने ही तेरा धन चुराया है । तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन का उपभोग नहीं लिखा । व्यर्थ के धन-संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर । घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले । मैं तेरी इच्छा पूरी करुँगा ।"
सोमिलक ने कहा ----"मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो ।"
अदृष्ट देवता ने उत्तर दिया----"धन का क्या उपयोग ? तेरे भाग्य में उसका उपभोग नहीं है । भोग-रहित धन को लेकर क्या करेगा ?"
सोमिलक तो धन का भूखा था, बोला----"भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिये । बिना उपयोग या उपभोग के भी धन कि बड़ी महिमा है । संसार में वही पूज्य माना