महाराज शिवी

महाराज शिवि अपनी शरणगत रक्षा के लिये प्रसिद्ध थे। एक बार देवराज इन्द्र तथा अगिनदेव ने उनकी परीक्षा लेने के लिये कबूतर और बाज का रूप धरण किया। महाराज शिवि अपने प्रांगण में बैठे थे। सहसा एक कबूतर काँपते हुए उनकी गोद में आकर गिरा और छिपने का उपक्रम करने लगा। महाराज शिवि को आशंका हुई कि अवश्य ही यह कबूतर भयाक्रांत है ओर शरण पाने के लिये ही उनकी गोद में छिपने का प्रयास कर रहा है।

महाराज शिवि की आशंका सत्य हुई। कुछ ही क्षणें में एक बाज भी आकर कबूतर के ऊपर उसका भक्षण करने की इच्छा से मंडराने लगा।

शिवि ने बाज से कहा- अब यह कबूतर मेरी शरण में गया है। अतः इसकी रक्षा मेरा धर्म है। तुम चुपचाप यहाँ से चले जाओ।

शिवि का संकेत समझाकर बाज ने मानवी भाषा में कहा- महाराज, कबूतर को प्रकृति ने मेरा आहार बनाया है। किसी का आहार छीन लेना धर्म नहीं है। मैं बहुत भूखा हूँ। यदि मेरे आहार रूपी कबूतर को आप मुझे नहीं देंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगाा। इससे आप हत्या के भागी होंगे। क्या तब यह अधर्म नहीं होगा ?“ 

बाज का कथन राजा को ठीक ही लगा अतः उन्होंने बाज से कहा, “भाई तुम्हारा कहना भी ठीक ही है पर मरा भी धर्म शरणागत की रक्षा करना है। अतः मैं शरणागत हुए इस कबूतर का त्याग कदापि नहीं करूँगा। तुम्हारा पेट तो किसी भी पशु के माँस से भर जायेगा।“ 

पर बाज भी अपनी बात पर अड़ा रहा। उधर राजा शिवि कबूतर को बाज को देने के लिये दृढ प्रतिज्ञत थे। तब महाराज शिवि ने एक शर्त रखते हुए बाज से कहा- अच्छा यदि मैं तुम्हें एक कबूतर के तौल के बराबर अपना माँस तुम्हारी भूख मिटाने के लिये दे दूँ तो क्या तुम मान जाओगे?

 शिवि की इस शर्त को बाज ने स्वकार कर लिया। तत्काल महाराज शिवि ने तराजू लाने की आज्ञा दी तराजू लाया गया।

तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बिठलाया गया। अब महाराज शिविर अपने दाएँ हाथ से अपना बाँया अंग काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। बड़ा लोमहर्षक दृश्य था। पर कबूतर वाला पलड़ा भारी ही रहा। महाराज शिवि ने धीरे-धीरे अपने सभी ही रहा बत महाराज शिवि स्वयं जाकर पलड़े पर बैठ गये।

यह महाराज शिवि की शरणागत की रक्षा की परीक्षा का चरम क्षण था। एक नन्हें प्राणी की रक्षा के लिये उन्होने अपना  सम्पर्ण शरीर ओर अस्तित्व ही दाँव में लगा दिया था। 

देवराज इन्द्र ओर अगिन  देव महाराज शिवि के इस दान ओर तयाग को देखकर आश्चर्यचकित थे। अतः ते दोनों अपने असली रूप में प्रकट हो गये।

देवराज इन्द्र ने कहा-महाराज शिवि आप धन्य हैं। आप हमारी परीक्षा में खरे उतरे हैं। शरणागत की रक्षा के लिये आप इस संसार में अनन्त काल तक जाने जायेंगे।

देवराज  इन्द्र की कृपा से महाराज शिवि के कटे हुए अंग यथावत अपने-अपने स्थान पर लग गए। उनका शरीर पूर्व की तरह स्वस्थ एवं निरोग हो गया।

सब जीवों के प्रति दयाभाव तथा शरणागत की रक्षा करना हिन्दू धर्म की अहम विशेषता है।

कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता है

 

एक नगर में एक मशहूर चित्रकार रहता था  

चित्रकार ने एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनाई 

और उसे नगर के चौराहे मे लगा दिया और 

नीचे लिख दिया कि जिस किसी को , 

जहाँ भी इस में कमी नजर आये 

वह वहाँ निशान लगा दे

 जब उसने शाम को तस्वीर देखी 

उसकी पूरी तस्वीर पर निशानों से ख़राब हो चुकी थी  
यह देख वह बहुत दुखी हुआ  

उसे कुछ समझ नहीं रहा था कि अब क्या करे 

वह दुःखी बैठा हुआ था
तभी उसका एक मित्र वहाँ से गुजरा 

उसने उस के दुःखी होने का कारण पूछा तो उसने उसे पूरी घटना बताई  
उसने कहा एक काम करो 

कल दूसरी तस्वीर बनाना और 

उस मे लिखना कि 

जिस किसी को इस तस्वीर मे जहाँ कहीं भी कोई कमी नजर आये 

उसे सही कर दे  
उसने अगले दिन यही किया  

शाम को जब उसने अपनी तस्वीर देखी 

तो उसने देखा की तस्वीर पर किसी ने कुछ नहीं किया
वह संसार की रीति समझ गया  

"कमी निकालना , निंदा करना , बुराई करना आसान है 

लेकिन उन कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता है।

 

 

जैसी करनी वैसी भरनी - कर्म भोग ..!!!

 

एक गाँव मे एक किसान रहता था। उसके परिवार मे उसकी पत्नी और एक लड़का था। कुछ सालो के बाद पत्नी मृत्यु हो गई। उस समय लड़के की उम्र दस साल थी। किसान ने दूसरी शादी कर ली। उस दूसरी पत्नी से भी किसान को एक पुत्र प्राप्त हुआ। किसान की दुसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई।
किसान का बड़ा बेटा, जो पहली पत्नी से प्राप्त हुआ था, जब शादी के योग्य हुआ, तब किसान ने बड़े बेटे की शादी कर दी। फिर किसान की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई।

किसान का छोटा बेटा, जो दुसरी पत्नी से प्राप्त हुआ था और पहली पत्नी से प्राप्त बड़ा बेटा दोनो साथ साथ रहते थे। कुछ टाईम बाद किसान के छोटे लड़के की तबयीत खराब रहने लगी। बड़े भाई ने कुछ आस पास के वैद्य से ईलाज करवाया पर कोई राहत ना मिली। छोटे भाई की दिनभर तबीयत बिगड़ी जा रही थी और बहुत खर्च भी हो रहा था।

एक दिन बड़े भाई ने अपनी पत्नी से सलाह की यदि ये छोटा भाई मर जाऐ तो हमे इसके ईलाज के लिऐ पैसा खर्च ना करना पड़ेगा।
तब उसकी पत्नी ने कहाँ की क्यो किसी वैद्य से बात करके इसे जहर दे दिया जाऐ। किसी को पता भी ना चलेगा। कोई रिश्तेदारी मे भी शक ना करेगा कि बीमार था बीमारी से मृत्यु हो गई।

बड़े भाई ने ऐसे ही किया एक वैद्य से बात करी कि आप अपनी फीस बातओ, ऐसा करना मेरे छोटे भाई को जहर देना है।
वैद्य ने बात मान ली और लड़के को जहर दे दिया और लड़के की मृत्यु हो गई। उसके भाई भाभी ने खुशी मनाई कि रास्ते का काँटा निकल गया। अब सारी सम्पति अपनी हो गई। उसका अंतिम संस्कार कर दिया। कुछ महीनो पश्चात उस किसान के बड़े लड़के की पत्नी को लड़का हुआ। उन पति पत्नी ने खुब खुशी मनाई। बड़े ही लाड प्यार से लड़के की परवरिश की। समय के साथ लड़का जवान हो गया। उन्होने अपने लड़के की शादी कर दी।

शादी के कुछ समय बाद अचानक लड़का बीमार रहने लगा। माँ बाप ने उसके ईलाज के लिऐ बहुत वैद्यों से ईलाज करवाया। जिसने जितना पैसा माँगा दिया।सब दिया की लड़का ठीक हो जाऐ। अपने लड़के के ईलाज मे अपनी आधी सम्पति तक बेच दी पर लड़का बिमारी के कारण मरने की कागार पर गया। शरीर इतना ज्यादा कमजोर हो गया की अस्थि पिजंर शेष रह गया था।
एक दिन लड़के को चारपाई पर लेटा रखा था और उसका पिता साथ मे बैठा अपने पुत्र की ये दयनीय हालत देख कर दुःखी होकर उसकी और देख रहा था।
तभी लड़का अपने पिता से बोला की भाई अपना सब हिसाब हो गया बस अब कफन और लकड़ी का हिसाब बाकी है उसकी तैयारी कर लो। ये सुनकर उसके पिता ने सोचा की लड़के का दिमाग भी काम ना कर रहा है बीमारी के कारण और बोला बेटा मै तेरा बाप हूँ, भाई नही। तब लड़का बोला मै आपका वही भाई हुँ जो आप ने जहर खिलाकर मरवाया था। जिस सम्पति के लिऐ आप ने मुझे मरवाया, अब वो मेरे ईलाज के लिऐ आधी बिक चुकी है। आधी आपकी की शेष है। हमारा हिसाब हो गया। तब उसका पिता फुट फुट कर रोते हुए बोला की मेरा तो कुल नाश हो गया। जो किया मेरे आगे गया पर तेरी पत्नी का क्या दोष है जो इस बेचारी को जिन्दा जलाया जाऐगा(उस समय सतीप्रथा थी जिसमे पति के मरने के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ जला दिया जाता था) तब वो लड़का बोला की वो वैद्य कहाँ है जिसने मुझे जहर खिलाया था। तब उसके पिता ने कहा की आप की मृत्यु के तीन साल बाद वो मर गया था।

तब लड़के ने कहा की ये वही दुष्ट वैद्य आज मेरी पत्नी रुप मे है। मेरे मरने पर इसे जिन्दा जलाया जाऐगा।

परमेश्वर कहते है कि कर्मों का लेखा यहीं भुगत के जाना होता है। इस लिए कोई भी बुरा काम करते हुए एक बार सोच विचार कर लिया करो।

 

 

महानता के लक्षण

एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी,उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा -'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।' माँ के उस पुत्र का नाम था ईश्वरचंद्र विद्यासागर

 

 

 

बन्दर और लकड़ी का खूंटा

एक समय शहर से कुछ ही दूरी पर एक मंदिर का निर्माण किया जा रहा था। मंदिर में लकडी का काम बहुत था इसलिए लकडी चीरने वाले बहुत से मज़दूर काम पर लगे हुए थे। यहां-वहां लकडी के लठ्टे पडे हुए थे और लठ्टे शहतीर चीरने का काम चल रहा था। सारे मज़दूरों को दोपहर का भोजन करने के लिए शहर जाना पडता थाइसलिए दोपहर के समय एक घंटे तक वहां कोई नहीं होता था। एक दिन खाने का समय हुआ तो सारे मज़दूर काम छोडकर चल दिए। एक लठ्टा आधा चिरा रह गया था। आधे चिरे लठ्टे में मज़दूर लकडी का कीला फंसाकर चले गए। ऐसा करने से दोबारा आरी घुसाने में आसानी रहती है।

तभी वहां बंदरों का एक दल उछलता-कूदता आया। उनमें एक शरारती बंदर भी थाजो बिना मतलब चीजों से छेडछाड करता रहता था। पंगे लेना उसकी आदत थी। बंदरों के सरदार ने सबको वहां पडी चीजों से छेडछाड करने का आदेश दिया। सारे बंदर पेडों की ओर चल दिएपर वह शैतान बंदर सबकी नजर बचाकर पीछे रह गया और लगा अडंगेबाजी करने।

उसकी नजर अधचिरे लठ्टे पर पडी। बसवह उसी पर पिल पडा और बीच में अडाए गए कीले को देखने लगा। फिर उसने पास पडी आरी को देखा। उसे उठाकर लकडी पर रगडने लगा। उससे किर्रर्र-किर्रर्र की आवाज़ निकलने लगी तो उसने गुस्से से आरी पटक दी। उन बंदरो की भाषा में किर्रर्र-किर्रर्र का अर्थ निखट्टूथा। वह दोबारा लठ्टे के बीच फंसे कीले को देखने लगा।

उसके दिमाग में कौतुहल होने लगा कि इस कीले को लठ्टे के बीच में से निकाल दिया जाए तो क्या होगाअब वह कीले को पकडकर उसे बाहर निकालने के लिए ज़ोर आजमाईश करने लगा। लठ्टे के बीच फंसाया गया कीला तो दो पाटों के बीच बहुत मज़बूती से जकडा गया होता हैंक्योंकि लठ्टे के दो पाट बहुत मज़बूत स्प्रिंग वाले क्लिप की तरह उसे दबाए रहते हैं।

बंदर खूब ज़ोर लगाकर उसे हिलाने की कोशिश करने लगा। कीला जोर लगाने पर हिलने खिसकने लगा तो बंदर अपनी शक्ति पर खुश हो गया।

वह और ज़ोर से खौं-खौं करता कीला सरकाने लगा। इस धींगामुश्ती के बीच बंदर की पूंछ दो पाटों के बीच गई थीजिसका उसे पता ही नहीं लगा।

उसने उत्साहित होकर एक जोरदार झटका मारा और जैसे ही कीला बाहर खिंचालठ्टे के दो चिरे भाग फटाक से क्लिप की तरह जुड गए और बीच में फंस गई बंदर की पूंछ। बंदर चिल्ला उठा।

तभी मज़दूर वहां लौटे। उन्हें देखते ही बंदर ने भागने के लिए ज़ोर लगाया तो उसकी पूंछ टूट गई। वह चीखता हुआ टूटी पूंछ लेकर भागा।

 

 

 

 

 

सियार और ढोल

एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट </